Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सूतीय कर्म ग्रन्थ
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तक ही होता है, आगे के गुणस्थानों में नहीं । अतः चौथे गुणस्थान में नारक जीवों के तिर्यचायु का बन्ध नहीं हो सकता । इस प्रकार नरक, देव और तिर्यंचायु के बन्ध नहीं होने से सिर्फ मनुष्यायु शेष रहती है तथा तीसरे मिश्रगुणस्थान में परभव सम्बन्धी बायु का बन्ध न होने का सिद्धान्त होने से चौथे गुणस्थानवर्ती नारक जीव मनुष्यायु का बन्ध कर सकते हैं ।
इस प्रकार नरकगति में गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद नरकभूमियों में रहने वाले नारकों को अपेक्षा बंधस्वामित्व बतलाते हैं ।
रत्नप्रभा,
शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा,
पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमः प्रभा - ये सात नरकभूमियाँ हैं। ये भूमियाँ घनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित हैं। एक दूसरे के नीचे हैं और नीचे की ओर अधिक विस्तीर्ण है।'
इन सात नरकों में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा इन नरकों में सामान्य व चारों गुणस्थानों की अपेक्षा कहे गये नारक जीवों के aratarface के समान ही बन्धस्वामित्व मानना चाहिए। अर्थात जैसे नरकगति में पहले गुणस्थान में १००, दूसरे में ६६, तीसरे में ७० और चौथे में ७२ प्रकृतियों का बन्ध माना गया है, उसी प्रकार रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा - इन नरकों में रहने वाले नारक जीवों के अपने-अपने योग्य गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का स्वामित्व समझना चाहिए।
गाथा में आये हुए 'राइसु' इस बहुवचनात्मक पद से यद्यपि रत्नप्रभा आदि सातों नरकों का ग्रहण होना चाहिए था, किन्तु यहाँ रत्नप्रभा आदि पहले, दूसरे और तीसरे नरक के ग्रहण करने का कारण
१. रत्नशर्करा बालुकापंकधूमतमो महातमः प्रभा भूमियो धनाम्बुवताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः ।
-सवा ३३१