Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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ततीय कर्मग्रन्थ होते है । अर्थात् उक्त १६ प्रकृतियों में से देवगति, देवानुपूर्वी, बैंत्रिय शरीर, वैक्रिय अगोपांग, देवायु, नरकगति, मरकानपूर्वी और नरकायु--येक प्रकृतियों देव और नारकीय-प्रायोग्य है और नारको जीव मरकर नरक अथवा देव गति में उत्पन्न नहीं होते हैं । अतः इन आठ प्रकृतियों का भरकगति में बंध नहीं होता है।
सूक्ष्म नाम, अपर्याप्त नाम और साधारण नाम इन तीन प्रकृतियों का भी बंध नारक जीवों के नहीं होता है। क्योंकि सुक्ष्म नामकार्म का उदय सूक्ष्म एकेन्द्रिय के, अपर्याप्त नामक्रम का उदय अपर
प्ति तिर्यचों और मनुष्यों के तथा साधारण नामकर्म का उदय साधारण वनरूपति के होला है।। ____ इसी प्रकार एकेन्द्रिय जाति, स्थावर नाम और आतप नाम ये तीन प्रकृतियां एकेन्द्रिय-प्रायोग्य है तथा विकलेन्द्रियत्रिक विकलेन्द्रियप्रायोग्य हैं। अतः इन छः प्रकृतियों को मारक जीव नहीं बांधते हैं तथा आहारक द्रिक का उदय चारित्रसंपन्न लब्धिधारी मुनियों को ही होता है, अन्य को नहीं 1 इसलिए देवद्रिक में लेकर आतप नामकर्म पर्यन्त १६ प्रकृतियाँ अबन्ध होने में नरकमति में सामान्य मे १०१ प्रकृतियों का बंध होता है।
याषि नरकगति में सामान्य में १०१ प्रकृतियां बंधयोग्य हैं, लेकिन नारकों में पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में लेकर चौधे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं । अतः मिथ्यात्व मुणस्थान में सीर्थङ्कर नामकर्म का बंध नहीं होने में १०० प्रकृत्तियों का बंध होता है 1 क्योंकि तीर्थङ्कर नामकर्म के बंध का अधिकारी सम्यक्त्वी है, अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर ही तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध हो सकता है । लेकिन मिथ्यात्व गुणास्थान में सम्यक्त्व नहीं है, अतः मिथ्यात्व गुणस्थानवी नारक जीव के तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध नहीं होता है। इसीलिए मिथ्यात्व गुणस्थान में नारक जीवों के १०० प्रकृतियाँ बंधयोग्य है।
दूसरे सास्त्राइन गुणस्मानी नारक जीव नपुसकवेद, मिथ्यात्व.