Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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स्वामित्व
नारक - नरकगतिनामकर्म के उदय से जो हों अथवा 'नरान्जीवों को, कार्यन्ति-क्लेश पहुँचायें उनको नारक कहते हैं। अथवा द्रव्य क्षेत्र, काल भाव से जो स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त न करते हों, उन्हें नारक कहते हैं। नारक निरन्तर ही स्वाभाविकशारीरिक-मानसिक आदि दुखों में दुखी रहते हैं ।'
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सामान्यता व वंशाची जीवों को शा २० प्रकृतियां बन्धयोग्य मानी गई है। उनमें से पूर्व की दो गाथाओं में कही गई ५५ प्रकृतियों के संग्रह में से देवद्विक आदि से लेकर अनुक्रम से कही गई aate प्रतियf नरकगति में बन्धयोग्य ही न होने से सामान्यतः १०१ प्रकृतियों का बंध माना जाता है। अर्थात् गाथा में जो 'सुरराणी पद आया है उसमें – (१) देवगति, (२) व आनु पूर्वी, (३) वैक्रियशरीर. (४) चैक्रिय अंगोपांग, (५) आहारक शरीर (६) आहारक अंगोपांग, (७) देवायु, (८) नरकगति (2) नरक आनुपूर्वी (१०) नरकायु, (११) सूक्ष्म नाम, (१२) अपर्याप्त नाम, (१३) साधारण नाम (१४) द्वीन्द्रिय जाति (१५) श्रीन्द्रिय जाति (१६) चतुरिन्द्रिय जाति. (१७) एकेन्द्रिय जाति, (१८) स्थावर नाम तथा (१६) आतप नाम इन उनीस प्रकृतियों का नारक जीवों के भव-स्वभाव के कारण बंध ही नहीं होता है अतः योग्य १२० प्रकृतियों में से इन १६ प्रकृतियों को कम करने पर १०१ प्रकृतियों को सामान्य में नरकगति में बधयोग्य मानना चाहिए।
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क्योंकि जिन स्थानों में उक्त उन्नीस प्रकृतियों का उदय होता है, नारक जीव नरकगति में से निकलकर उन स्थानों में उत्पन्न नहीं
१. ( क ) गति जदो दिन् सेस का अह जम्हा तम्हा से भारका
भावे य
शिया 11
• गो० जीवकान्ड १४६
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(ख) नित्याशुभतरलेश्य परिणाम देवेनाविक्रियाः ।