Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रथ
(२५) तिर्यचद्रिक - तियंचगति तियंत्रानुपूर्वो.
(२६) तिचायु (२७) मनुष्यायु,
(२०) मनुष्यद्विक मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, (२६) औदारिकद्विक औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग.
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(३०) वज्रऋषभनाराच संहनन ।
इस प्रकार संक्षेप में बंधयोग्य प्रकृतियों का संकेत करने के लिए प्रकृतियों का संग्रह बतलाकर आगे की चार गाथाओं में चौदह मार्गेणाओं में में गतिमार्गभा के भेद नरकगति का बंध-स्वामित्व बतलाते हैं।
सुरइगुणवीसचज्जं इस ओहेण वह निरया । तित्थ विणा मिछ सय सासणि नपुचउ थिणा छुई" 11 गाथार्थ ... बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में में सुरक्षिक आदि उन्नीस प्रकृतियों के सिवाय एक सौ एक प्रकृतियाँ सामान्यरूप से नारक जीव बांधते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में वर्तमान नारक तीर्थदूर नामकर्म के बिना सौ प्रकृतियों को और सास्वादन गुणस्थान में नपुंसक चतुष्क के सिवाय छियानवे प्रकृतियों को बांधते है । त्रिर्थ गाथा में सामान्य (ओ) रूप से नरकगति में तथा विशेष रूप से उसके पहले मिथ्यात्व गुणस्थान और दूसरे सास्वादन गुणस्थान में बंधयोग्य प्रकृतियों का कपन किया गया है।
१. ओघबंध किसी ग्राम गुणस्थान या खाम तरफ की विवक्षा किये बिना ही सब नाक जीवों का जो बंध कहा जाता है. वह उनका ओषबंध या सामान्यबंध कहलाता है ।
२. विशेषबंध - किसी खास गुणस्थान या किसी खाम नरक को लेकर नारकों में जो बंध कहा जाता है, वह उनका विशेषबंध कहलाता है। जैसे कि मिध्यात्व गुणस्थानवर्ती नारक १०० प्रकृतियों को बाँधते हैं इत्यादि । इसी प्रकार आगे अन्यान्य मार्गणाओं में भी प्रोष और विशेष बंध का आशय