Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कमप्रस्थ
आहार---आहारक जीवों के पहले मिथ्यात्व में लेकर तेरहवें सयोगिकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं। अनाहारक जीवों के, पहला, दसरा, चौथा, तेरहवा, चौवहाँ, यह पांच गुणस्थान होते हैं ।
इस प्रकार मार्गणाओं के लक्षण और उनके अवान्तर भेदों की संस्था और नाम आदि बतलाने के बाद जीत्रों के अपने-अपने योग्य कर्म-प्रकृतियों के बन्ध करने की योग्यता का कथन करने में सहायक कुछ एक प्रकृतियों के संग्रह का संकेत आगे की दो गाथाओं में करते हैं।
जिण सुरविड़वाहारवु वेवार य नरयसुहमविगलतिग । एगिदि थावराध्यय नषु मिन्छ हुड छेवळ ॥२६॥ अण मज्मागिद्द संधयण कुखग लिय इयि दुहायोगलिग ।
उस्लोयतिरि दुगं तिरि नराउ नर उर लगारिसहं ॥३॥ गावार्थ-जिननाम, सुरद्विक, वैक्रियतिक, आहारकद्विक, वायु, नरकटिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलनिक, एकेन्द्रिय, स्थावरनाम, आतपनाम, नपुसकयेद, मिथ्यात्व, हूं इसंस्थान, मेवात संहनन, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, मध्यम संस्थान चतुक, मध्यम संहननचतुक, अशुभविहायोगति, नीच गोत्र, स्त्रीवेद, दुभंगत्रिक, स्त्यानद्धित्रिक. उद्योतनाम, तियंचद्विक, तिर्यंचायु, मनुस्मायु, मनुष्यद्विक, औदारिकदिक, और वऋषभनाराच संहनन यह ५५ प्रकृतियाँ जीवों का बंधस्वामित्व बतलाने में सहायक होने से अनुक्रम से गिनाई गई हैं।
विशेषार्थ-बंधयोग्य १२० प्रकृतियाँ है। उनमें से उक्त ५५ कर्मप्रकृतियों का विशेष उपयोग इस कर्मग्रन्थ में संकेत के लिये हैं । अर्थात इन दो गाथाओं में संकेत द्वारा संक्षेप में बोध कराने के लिए ५५ प्रकृतियों का संग्रह किया गया है, जिससे आगे की गाथाओं में बंध प्रकृतियों का नामोल्लेख न करके अमुक से अमुक तक प्रकृतियों की संख्या को समझ लिया नाय । जैसे कि 'सुरगुणधीस' इस पद से देवद्धिक से लेकर आगे की १६ प्रकृतियों को ग्रहण कर लेना चाहिये।