Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ
का भी समावेश किया गया है। फिर भी उनको ज्ञानमार्गणा और संयममार्गणा कहने का क्या कारण है ?
उतर -- प्रत्येक मार्गणा का नामकरण मुख्य भेदों की अपेक्षा से किया गया है। मुख्य भेद vare हैं और प्रतिपक्षभूत भेद गौण । जैसे किसी वन में नीम आदि के वृक्ष अल्पसंख्या में और आम्रवृक्ष अधिक संख्या में होते हैं, तो उसे आम्रवन कहते हैं। इसी प्रकार ज्ञानमार्गणा के भेदों में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान यह पाँच ज्ञान मुख्य हैं तथा मति अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंग-ज्ञान गौण हैं, तथा संयममार्गणा के भेदों में सामायिक आदि ययाख्यातपर्यन्त प्रधान तथा संयम का प्रतिपक्षी असंयम गौण है । इसीलिए मति आदि ज्ञानों और सामायिक आदि संयमों की मुख्यता होने से क्रमश: ज्ञानमार्गणा और संयममार्गणा यह नामकरण किया गया है।
मार्गणाओं में सामान्य रूप से तथा गुणस्थानों की अपेक्षा बंध स्वामित्व का कथन किया गया है। मार्गणाओं में सामान्यतया गुणस्थान नीचे लिखे अनुसार हैं
गति - तियंचगति में आदि के पांच, देव और नरक गति में आदि के चार तथा मनुष्यगति में पहले मिथ्यात्व से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सभी चौदह गुणस्थान होते हैं ।
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इन्द्रिय-- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में पहला, और दूसरा ये दो गुणस्थान होते हैं । पंचेन्द्रियों में सब गुणस्थान होते हैं । काय - पृथ्वी, जल और वनस्पति काय में पहला और दूसरा ये दो गुणस्थान हैं। मतित्रस तेजःकाय और वायुकाय में पहला गुणस्थान है । उसकाय में सभी गुणस्थान होते हैं ।
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योग- पहले से लेकर तेरहवें ( सयोगिकेवली ) तक तेरह गुणस्थान होते हैं ।
वेद वेदत्रिक में आदि के नौ गुणस्थान होते हैं । (सदयापेक्षा )
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