Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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वन्दे वीरम् श्रीमन देवधरि विरचित बन्धस्वामित्व
तृतीय कर्मप्रस्थ बन्धविहाणाधम, क्षय सिपिरमाणजिन । गइयाईसु बुच्छ, समासओ बंधसामित ॥१५॥ गाधार्थ-कर्मबन्ध के विधान से विमुक्त, चन्द्रमा के समान सौम्य श्री वर्धमान (वीर) जिनेश्वर को नमस्कार करके गति आदि मार्गणाओं में वर्तमान जीवों के बन्धस्वामित्व को संक्षेप में कहता है। विशेषार्थ-ग्रन्थकार ने ग्रन्थारम्भ में मंगलाचरण करते हुए ग्रन्थ में वर्णित विषय का संक्षेप में संकेत किया है।
आरमप्रदेशों के साथ कर्म के सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं और यह सम्बन्ध मिथ्यात्वादि कर्मबन्ध के कारणों द्वारा होता है। अर्थात् मिध्यावादि कारणों द्वारा आत्मा के साथ होने वाले कर्मबन्ध के सम्बन्ध को कर्मविधान कहते हैं । इस कर्मविधान से विमुक्त यानी मिथ्यात्वादि कारणों से सर्वथा रहित होकर चन्द्रमा के समान प्रकाशमान, सौम्य और केवलज्ञानरूप श्री लक्ष्मी से समृद्ध वर्धमान-धीर जिनेश्वर की वन्दना करके संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवों के गति आदि मार्गणाओं की अपेक्षा संक्षेप में बन्धस्वामित्व-कौन-सा जीव कितनी प्रकृतियों को बांधता है—का वर्णन इस ग्रन्थ में आगे किया जा रहा है।
मार्गणागति आदि जिन अवस्थाओं को लेकर जीव में गुणस्थान, जीवस्थान आदि की मार्गणा-विचारणा, गवेषणा की जाती है, उन