Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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स्थान, भाव और संख्या से विभाग करके उनका विस्तार से वर्णन किया गया है। पंचम कथ में प्रथम कर्मग्रन्थ में afra प्रकृतियों में से कौन-कौन सी ध्रुव, अभूव, बन्ध, उदय, सत्ता वाली हैं. कौन-सी सर्व देशघाती अपाती, पुण्य पाप, परायर्तमान अपरावर्तमान है और उसके बाद उन प्रकृतियों में कौनसी क्षेत्र, जीव भव र पुद्गल विपाकी है यह बतलाया गया है। इसके बाद कर्मप्रकृतियों के प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश व इस बार प्रकार के बन्धों का स्वरूप बतलाया गया है तथा उनसे संबन्धित अन्य कथनों का समावेश करते हुए अन्त में उपशम श्रेणी क्षपक श्रेणी का पथ किया गया है।
तृतीय कर्म का
विषय
प्रस्तुत कर्मग्रन्थ में गति आदि १४ मागंणाओं के उत्तरभेदों में सामान्य व गुणस्थानों की अपेक्षा कर्मकृतियों के गंध को बताया है। यानी किस मार्पणा वाला जीन fear - कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है । यया ग्रन्थ के प्रारम्भ में मार्गणात्रों और उनके उसरमेदों का कम-क्रम से गति, इन्द्रिय काय आदि मार्गाओं के
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नामोल्लेख नहीं है लेकिन प्रभेदों का आय लेकर
स्वामित्व का कथन किया है, जिससे अध्येता मार्गणाओं के मूल और
उनके अवान्तर भेदों को सहज में समझ लेता है।
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इस ग्रन्थ और प्राचीन कर्मम्य का वर्ण्यविषय समान है लेकिन इन दोनों में यह अन्तर है कि प्राचीन में विषय वर्णन कुछ विस्तार में किया गया है और इसमें क्षेत्र से लेकिन उसका कोई भी विषय इसमें छूटा नहीं है। गोम्मटलेकिन सार कर्मकाण्ड में भी इस ग्रन्थ के विषय का वर्णन किया गया है। उसकी वर्णन कुछ भिन्न है तथा जो विषय तीसरे कर्मग्रन्थ में नहीं है, परन्तु जिस विषय का वर्णन अध्ययन करने वालों के लिये उपयोगी है, वह सब कर्मे में है । तीसरे कर्मग्रन्थ में मागंगाओं में बन्धस्वामित्व का वर्णन किया arr है किन्तु कर्मकांड में बन्धस्वामित्व के अतिरिक्त उदय, उदीरणा व सत्तास्वामित्व का भी वर्णन है । यह वर्णन अभ्यासियों के लिए उपयोगी होने से परिशिष्ट के रूप में संकलित किया गया है ।