Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्थ अपने-अपने स्पर्शादिक विषयों में दूसरे की (रसना आदि की) अपेक्षा न रखकर जो स्वतंत्र हों, उन्हें इन्द्रिय कहते हैं।
(३) काय -जाति नामकर्म के अविनाभावी अस और स्थावर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को काय कहते हैं।
(४) योग-मन, वचन, काया के व्यापार को योग कहते हैं, अथवा पुदगल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन-काय से युक्त जीव की जो कमां के ग्रहण करने में काम शक्ति है, उसे योग कहते हैं।'
(५) वेच-नोकषाय मोहनीय के उदय से ऐन्द्रिय-रमण करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं।
(६) कवाय- जो आत्मगुणों को कषे (नष्ट करे अथवा जो जन्म-मरणरूपी संसार को बढ़ाये अथवा सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्र को न होने दे, उसे कषाय कहते हैं।'
(७) शान... जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को जाने, उसे शान कहते हैं । १ मणमा वाया कारण वा वि झुतस्स विरिय परिणामो 1 ___ जिहप्पणिजोगो जोगो ति जिहि चिहिट्छ ।
--पंधसंग्रह २ आत्मप्रवृत्त मैथुनसंमोहोत्पादों वेदः ।
-सला ११४१४ ३ (को कपस्यात्मानं हिनस्ति इति कवाय इत्युच्यते । (ख) चारितपरिणाम कषयात् कषायः ।
---रावालिका ४ ज्ञायते-परिमिछद्यते वस्त्यने नामादम्मिलि वा झार्न, जानाति चिपएं परिचिप्सीति का ज्ञानं ।
.....अनुयोगद्वारसूत्र इति