Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सुतीय कर्म ग्रन्थ
विचार कर्म की अवस्थाओं के तरतम भाव का विचार नहीं है, किन्तु शारीरिक, मानसिक और शामगि शिनाओं से मिली का विचार मार्गणाओं द्वारा किया जाता है। जबकि गुणस्थान कर्मपटलों के तरतम भावों और योगों की प्रवृत्ति-निवृत्ति का ज्ञान कराते हैं।
मार्गणाएं जीव के विकास क्रम को नहीं बताती हैं, किन्तु इनके स्वाभाविक वैभाविक रूपों का अनेक प्रकार से पृषक्करण करती हैं। जबकि गुणस्थान जीव के विकास-क्रम को बताते हैं और विकास की कमिक अवस्थाओं का वर्गीकरण करते हैं। मार्गणाएँ सहभावी हैं. और गुणस्थान क्रमभाषी हैं। अर्थात् एक ही जीव में चौदह मार्ग णाएं हो सकती हैं, जबकि गुणस्थान एक जीव में एक ही हो सकता है । पूर्व-पूर्व गुणस्थानों को छोड़कर उत्तरोत्तर गुणस्थान प्राप्त किये जा सकते हैं और आध्यात्मिक विकास को बढ़ाया जा सकता है, किन्तु पूर्व-पूर्व की मार्गणाओं को छोड़कर उत्तरोत्तर मार्गणाएँ प्राप्त नहीं की जा सकती है और उनमें आध्यात्मिक विकास की सिद्धि भी नहीं हो सकती है । तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त यानी केवलशान को प्राप्त करने वाले जीव में कषायमार्गणा के सिवाय बाकी की सब मर्माणाएं होती हैं । परन्तु गुणस्थान तो मात्र एक तेरहवा ही होता है । अंतिम अवस्था पात जीव में भी तीन-चार मार्गमाओं को छोड़कर बाकी की सव मार्गणाएँ होती हैं, जबकि गुणास्थानों में सिर्फ चौदहवा मुणस्थान ही होता है।
इस प्रकार मार्गणाओं और गुणस्थानों में परस्पर अन्तर है। गुणस्थानों का कथन दूसरे कर्मग्रन्थ में किया जा चुका है। यहाँ पर मार्गणाओं की अपेक्षा जीव के कर्मबन्धस्वामित्व को समझाते हैं ।
जिस प्रकार गुणस्थान चांदह होते हैं, और उनके मिथ्यात्व, सास्वादन आदि चौदह नाम हैं, उसी प्रकार मार्गणाएँ भी चौदह होती हैं तथा उनके नाम इस प्रकार हैं