Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रयोग किया और उन सब का फलितार्थ यही निकलता है कि जीव द्वारा की गई प्रत्येक क्रिया, प्रवत्ति ऐसे संस्कारों का निर्माण करती है जिससे यह ओव तत्काल या कालान्तर में सुख-दुःवरूप फल को प्राप्त करता रहता है और वे जीव को शुभ-अशुभ फल प्राप्त कराने के कारण बनते हैं। लेकिन जब पछ् आत्मा अपनी विशेष शक्ति से समस्त संस्कारों से रहित हो नासनानन्य हो जाती है तब वह मुक्त कहलाती है और इस मुक्ति के श६ पुनः कर्म आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं होते है और न अपना फल ही देते हैं।
सचेतन तत्त्व की विचित्रता का समाधान कर्म को माने दिना नहीं हो सकता है । आश्मा अपने पूर्वात कमों के अनुसार वैसे स्वभाव और परिस्थितियों का निर्माण करती है, जिसका प्रभाव बाह्य सामग्री पर पड़ता है और उनके अनुसार परिणमन होता है ! तदनुमार कर्म-पल की प्राप्ति होती है । अब कर्म के परिपाक का समय आला है तन उनः उदय काल में भी हरा . क्षेत्र, काल, भाव की सामग्री होती है, वैसा ही उसका तीय. सद, मध्यम फल प्राप्त होता रहता है।'
अब प्रश्न यह होता है कि जीव के साथ कामो का सम्बन्ध जुहा कसे, जिससे वह सुख-दुःख आदि रूप विषमताओं का भोक्ता माना जाता है और कर्म का उस उस रूप में फल प्राप्त होता है तो इसका उत्तर है कि माम के झानदर्शनमय होने पर भी बैंकारिक -.. कथामात्मक प्रति मैं द्वारा में पुदगलों को ग्रहण करता रहता है और इस ग्रहण करने की प्रत्रिया में मन-वचनकाय का परिस्पन्दन सहयोभी बनता है 1 नमः कषायाम जीव में विमान है तब तक तीन विपाकोदय बाले (फल देने वाले कर्मों का बन्ध होता है। इन इंधे हुए कर्मों के अनुसार शुभाशुभ फल प्राप्त होता रहता है । इस फल. प्राप्ति का न तो अन्य कोई प्रदाता है और न सहायक । यदि कर्मफल की प्राप्ति में दूसरे को सहायक माना जाये तो स्वकृत कर्म निरर्थक हो जायें । दूसरे बात यह भी है कि यदि जीव को कर्मफल की प्रारित दूसरे के द्वारा होना
१ सुचिरणा कम्मा सुचिपगा। फला हवं ति । धिषणा कम्मा दुनिष्णा कला हदेखि ।
....देशातः ६ २ सकषायत्वाम्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्त । सत्त्वार्थसूत्र १२