Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कल्पित नहीं किन्तु वास्तविक तथ्यों पर आधारित है। कर्मवाद का मूल प्रयोजन जगत की दृश्यमान विषमता की समस्या को सूझलाना है ।
कर्म का सामान्य अभियार्थ किया है, लेकिन जब उसके व्यंजनात्मक अर्थ को ग्रहण करते हैं तो जीव द्वारा होने वाली किया से आत्मशक्ति को अच्छाfer करने वाले पौगलिक परमाणुओं का संयोग होता है और इस संयोग के are at को fafar अवस्थानों की प्राप्ति होना कर्म कहलाता है और यही कर्म प्राणिजगत की स्वरूप स्थिति की विभिन्नताओं, विविधताओं, विषमताओं का बीज है। इस बीज के द्वारा जीव नाना प्रकार की आधि, व्याधि, और उपाधियों को प्राप्त
करता है
कसुणा
उवाही
जाय । इसी बात करू तुर्की के शब्दों में-कर्म प्रधान fवश्य कर रखा
जो जस कर हि सो तस फल चला।
प्राणी जैसा करता है, वैसा ही फल प्राप्त होता है। इसमें किसी प्रकार की मलभता नहीं है। जनसाधारण में सो कर्म के बारे में यह मान्यता है -- करमगति टा नहि टरं । भारतीय कों ने तो कर्मसिद्धान्त को अति महत्वपूर्ण स्थान दिया है। जिसने भी आत्मवादी -जैन, सांख्यादि अनात्मवादी बी एवं यहाँ तक कि ईश्वरवादी विचारक हैं, सभी मे कम की ससा और उसके द्वारा जीव को सुख-दुःख आदि की प्राप्ति होना माना है और कर्मविपाक के कारण यह जीव विविध प्रकार की विषमताओं को प्राप्त करता है। जिसने जैसा कर्म का अन्ध किया है, उसके अनुसार सी-सी उसको मति और परिणति होती जाती है। पूर्ववद्ध कर्म उदय में आता है और उसी के अनुसार नवीन कर्मबन्ध होता जाता है। यह चक्र अनादि से चल रहा है ।
कर्म के आशय को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न दर्शनियों ने माया अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार आदि शब्दों का
१ आचारांग ३१