Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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४.-कपड़ा बुनने, घड़ा बनाने आदि कार्यों को पुष्टि के पहले किसी ने
सिखाया होगा। इसलिये कोई आदि शिक्षक होना चाहिये। .....कोई अति का बनाने वाला होना चाहिए। ६- वेदवाइयों का कोई का होना चाहिये । ७ - दो परमाणुओं के सम्बन्ध से सणुक बनता है, इसका कोई माता
होना चाहिये । ईश्वर का स्ववादियों की उरत कल्पनायें स्वयं अपने आप में विचारणीय हैं। क्योंकि सर्वप्रथम यह सोसना होगा कि जमत के निर्माध करने में ईश्वर की प्रवृति अपने लिए होती है अथवा दूसरों के लिए ? ईश्वर कृतकृत्य है, उसकी सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति हो सकी है, अत: वह अपनी इच्छायों को पूर्ण करने के लिए जगत का निर्माण नहीं कर सकता । यदि ईश्वर दूसरों के लिए सृष्टि की रचना करता है तो उसे बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता है । इस स्थिति में ईश्वर की स्वतन्त्रता में रुकावट आती है और उसे दूसरे की इमछा पर निर्भर रहना पड़ता है।
करुणा से बाध्य होकर भी ईश्वर सृष्टि का निर्माण नहीं करता है । उस स्थिति में अगत के संपूर्ण जीवों को सुखी होना चाहिए था। कोई दुखी नहीं हो, यह करुणाशील व्यक्ति ध्यान रखता है।
ईण्न र सबंगत भी नहीं है । यदि शरीर से सर्वगत माना जाये सो ईश्वर के तीनों लोकों में व्याप्त हो जाने से दुसरे बहने वाले पदार्थो को रहने का अवकाश ही नहीं रहेगा और यदि शान की अपेक्षा सर्वमत माना जाये तो वेद का विरोध होता है । क्योंकि वेद में ईश्वर को सर्वगत मानने के बारे में कहा है
विश्वतश्चल विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिस्त विश्वतः पाद् ।
ईश्वर सर्वत्र नेत्रों का, मुख का, हाथों और पैरों का धारक है, यानी वह अपने शरीर के द्वारा सर्वश्यापी है । शारीरवान मानने पर दूसरा यह मी क्षेप
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१ शुक्ल ऋजुर्वेद संहिता १७१६