Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रकार यह दृश्यमान जगल-प्रपंच मिथ्या प्रतीत होता है, इसीलिये यह मिथ्या है । इसका अपर नाम ब्रह्मातवाद है,।
लेकिन जब ब्रह्मवाद के उक्त मंतव्य करे तर्क की कसौटी पर परखते हैं तो वह उपहासनीय-सा प्रतीत होता है । प्रथम तो यह कि यह प्रपंच रूप अगस्त पषि ब्रह्मा को माया है तो यह माया ब्रह्म से भिन्न है, हा अभिन्न भिन्न मानने पर ब्रह्म और माया इन दो पदार्थों का समाव मानना पड़ेगा । उस स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता है के मात्र एक प्रा हा है, अद्वैत है । यदि माया और मा अभिन्न है तो इस आगतिक प्रपंच की मायारूपता सिख नहीं होती है । यदि कहा जाये कि माया सतरूप है तो बड़ा और माया इन दो पदार्थों का सबभाव होने से अद्वैत की सिद्धि नहीं होती है । माया को असस् माना जाये तो तीनों लोकों के पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि प्रारूप एक ही तत्त्व विभिन्न पदार्थों के परिणमन में उपादान कैसे बन सकता है ? जगत के समस्त पदार्थों को माया कह देने मात्र से उनका पृथक-पृथका अस्तित्न व व्यक्तित्व नष्ट नहीं किया जा सकता है । उनका व्यक्तित्व, अस्तित्व अपना-अपना है । एक भोजन करता है तो दूसरे को सृप्ति नहीं हो जाती है । एक जीव का मुख सनका सुख नहीं माना जा सकता है। अतः जमत के अनन्त जड़-चेत्तर मत पदार्थों का अपलाप करके केवल एक पुरुष को अनन्त कार्यों के प्रति उपादान मानना काल्पनिक प्रतीत होता है और कल्पना से रमणीय भी मालूम होता है । अगत के पदार्थों में सत् का अन्वय देखकर एक सत् तत्व की कल्पना करना और उसे ही वास्तविक मानता प्रतीतिविरुद्ध है।
इस अवकान्त की सिसि अधि अनुमान आदि प्रमाण से की जाती है तो हेतु, और साध्य इन दो के पृथक्-पृषक होने से अत की बजाय हुँत को सिद्धि होती है तथा कारण कार्य का, पुण्य-पाप का, कर्म के सुख-दुःख फल का; बहलोक-परलोक का, विद्या अविधा का, बन्ध-मोक्ष आदि का वास्तविक भेद ही नहीं रहता है। अतः प्रतीतिसिद्ध जगहस्यवस्था के लिये बयाद का मानमा उबित नहीं है ।