Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पुरुषवाद का दूसरा रूप है ईश्वरवा-ईश्वर कर्तृत्ववाद । इस जगतव्यापिनी विचित्रता का कतई ईश्वर है. पद ईश्वरकत नववाद का सारांशा है । ईश्वर को महानता बतलासे हुए ईश्वरवादी कहते हैं कि वह अद्वितीय है, सर्वव्यापी, स्वतन्त्र, निस्य है और ईश्वर के लिये प्रयुक्त इन विशेषणों का अर्थ इस प्रकार किया जाता है----
ईश्वर एक है.--- यानी भनितीय है। क्योंकि पदि बहुत से ईश्वरों को संसार का कर्ता माना जायेगा तो एक दूसरे की इच्छा में विरोध होने पर एक वस्तु के अन्य रूप में भी निर्माण होने पर संसार में ऐक्य व फ्रम का अभाव हो जायगा ।
ईश्वर सर्व पापी है. यदि ईश्वर को नियल देशव्यापी माना जाये तो अनियत स्थानों के समस्त पदार्थों की यथारीति से उत्पत्ति मन नहीं है ।
ईश्वर सर्वक है. यदि ईश्वर को सर्वज्ञ न मानें तो स्थायोग्य उपादान कारणों के न जानने पर वह उनके अनुरूप कार्यों को उत्पति में कर सकेगा।
ईश्वर स्वतन्य है-.-बोषिः वह अपनी इच्छा से ही संपूर्ण प्राणियों को सुख-दुःख का अनुभव कराता है ।
ईश्वर नित्य हैनित्य यानी अदिमाशी, अनुत्पन और स्थिर रूप हैं । अमिस्थ मानने पर एक ईश्वर से दूसरे ईश्वर की उत्पत्ति, दूसरे से तीसरे को, इस प्रकार परम्परा का मन्स नहीं आ सकेगा और वह अपने अस्तित्व के लिये। पराश्रित हो जायेगा।
ईश्वर को का मानने के सम्बन्ध में निम्नलिखित युक्तियों का अबलम्बन लिया जाता है'--
१ ---सृष्टि कार्य है अतः उसके लिये कोई कारण होना चाहिधे । २. सुष्टि के आदि में दो परमाणुओं में सम्बन्ध होने स इमणुक को
उत्पत्ति होती है, इस आयोजन क्रिया का कोई कर्ता होना चाहिये । . ३. सुष्टि का कोई आधार होमा काहिये ।
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