Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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का संकेत करके संसार के सामने उस सत्य को रखा जो जीवन निर्माण के लिये उपयोगी आदर्श प्रस्तुत करता है।
पूर्व में यह संकेत किया जा चुका है कि लोक में दो प्रकार के पदार्थ हैं..सधेतन और अचेतन । इन दोनों प्रकार के पदार्थों में बैंत्रिय, वैविध्य परिलक्षित होता है । जहाँ सक अचेतन पदार्थगत विचित्रसाों एवं आंशिक रूप से सचेतन तत्त्व की विविधताओं का सम्बन्ध है, उनके बारे में जैन इष्टि का यह मंतव्य है कि काल आदि पादों का समन्दय कारण है। किसी कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण से नहीं हो जाती किस्सु उस कार्य की उत्पत्ति आवश्यक सभी कारणों के मिलने पर होती है । ऐसा कभी नहीं होता है कि एक ही शक्ति अपने यस पर कार्य सिद्ध कर दे । हो, यह हो सकता है कि किसी कार्य में कोई एक प्रधान कारग हो और दूसरे गोग, किन्तु यह नहीं होता कि कोई अकेला ही कारण म्थतन्त्र *प से कार्य सिद्ध कर।
यह कथन सयुक्तिक एवं पक्ष है। मारः ख नाम पती का अनुभव करते है एवं प्रतीति भी इसी प्रकार की होती है । लेकिन पुरुषवाद-ब्रह्मवाद और ईश्वरकत त्वदाय... लो लोक क ससन या अधेतन पदार्थों की विचित्रताओं और विविधताओं का किसी भी रूप में... मुख्य या गौण रूप में कार नहीं बनता है। क्योंकि जिस रूप में ब्रह्म और ईश्वर के स्वरूप को माना गया है, उस रूप में उसकी सिद्धि नहीं होती है और उनके महत्व को हानि ही पहुंचती है । लोक के सम्बन्ध में पुरुषवाद की धारणा का पूर्व में यत्किचित् संकेत किया है, लेकिन उस धारणा को निरर्थकता बतलाने के लिये यहाँ कुछ विशेष विचार करते हैं।
पुरुषवाद का प्रथम रूप ब्रह्मवाद हैं और उसका यह पक्ष है कि एक ब्रह्म हो सत् है, उसके चाना रूप नहीं है, लेकिन जो कुछ भी नानारूपता हमें दिखलाई देती है वह सब प्रपंच है, यानी ब्रह्म का माया प है, लेकिन प्रहा स्वयं किसी को दिखलाई नहीं देता है और यह प्रपंच मिथ्या रूप है, क्योंकि उसमें मिथ्यारूपता प्रतीत होती है । जो मिष्यारूप प्रतीत होता है, वह मिथ्या है, असद है। जैसे सीप के टुकड़े में चांदी की मिथ्या प्रतीति होती है । उसी