Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( २६ ।
जाता है कि जनसाधारण की तरह उसका शरीर निर्माण अदृष्ट निमित्तक है - जैसे साधारण प्राणियों के शरीर का निर्माण उन-उनके अदृष्ट ( भाग्य, पूर्वकृत कर्म) से हुआ है, उसी प्रकार ईश्वर का शरीर भी अदृष्ट के कारण बना है और अशरीरी होने पर हृमयमान पदार्थों को उससे उत्पत्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि कारण के अनुरूप कार्य की उत्पति होती देखी जाती है | यदि यह कहा जाये कि ईश्वर का जगत रचने का स्वभाव है तो उसे जगत निर्माण के कार्य से कभी विश्राम नहीं मिलेगा और यदि विश्राम लेता है तो उसके स्वभाव को हानि पहुंचती है। यदि कहा जाये कि ईश्वर का जगत रखने का स्वभाव नहीं है तो ईश्वर कभी जगत को नहीं बना सकता है। सृष्टि और संहार यह दो अलग-अलग कार्य हैं और ईश्वर जगत को राष्टि व संहार दोनों कार्य करता है, तो उसमें दो स्वभाव मानने पड़ेंगे। क्योंकि निर्माण और नाश दो भिन्न-भिन्न कार्य हैं और एक स्वभाव से ही दोनों कार्य होने पर सृष्टि व संहार एक हो जायेंगे तथा एक स्वभाव रूप कारण से परस्पर विरोधी दो का उपन नहीं हो सकते हैं ।
इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि aar teri aarfare से aपने अस्तित्व एवं तथा ईश्वर ने भी असत् से किसी एक भी सत् को वे सब परस्पर सहकारी होकर प्राप्त सामग्री के रहते हैं, तब सर्वशक्तिमान ईश्वर को मामने की
जब जगत में सचेतन और स्वरूप से स्वतंत्र सिद्ध हैं उत्पन्न नहीं किया है और अनुसार परिणमन करते. Rear भी या है ? साथ
ही जगत के उद्धार के लिए किसी ईश्वर की कल्पना करना तो पदार्थों के freeरूप को ही परतंत्र बना देना है 1 प्रत्येक प्राणी अपने विवेक और प्यार से अपनी उन्नति के लिए उत्तरदायी है, न कि अन्य किसी विधाता के प्रति जिम्मेदार हैं और न उससे प्रेरित होकर ही वह कर्तव्य एवं अवतंय का
बोध प्राप्त करता है । अतः जगत में खिल्य के लिये पुरुषवाद निरर्थक है ।
प्राणियों में विद्यमान
पूर्व कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सचेतन विषमता के कारण ईश्वर आदि नहीं है किन्तु स्वयं जीव अपने कर्मों के विकास व विनाश, उत्थान व पतन के मार्ग पर अग्रसर होता है । इसीलिए जैन दृष्टि ने कर्मवाद को जीव जगत की favaar का कारण माना है । यह दृष्टि