Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
सीमित रही और ईश्वरवाद के विशेष प्रभावशाली बन जाने पर एक प्रकार से विलुप्त-सी हो गई और प्रमुख रूप से ईश्वर को ही इस बोक-वैचित्य एवं जीवजगत के सुख-दुःख आदि का कारण माना जाने लगा।
पुरुषकार--- सामान्यतः पुरुष ही इस जगत का कर्ता, हर्ता और विधाता है-यह मत पुरुषवाक्ष कहलाता है। पुरुषबाद में दो विचार गभित हैं. एक ब्रह्मवाद और दूसरा ईश्वरकतुं रखवाव । महाबाद में ब्रह्म हो जगत के चेतनअवेतन, मूर्त-अमूर्त आदि सभी पदार्थों का अपादान कारण है और ईश्वरवाद में ईश्वर स्वयंसिद्ध अड़-चेलान पदार्थों में परस्पर संयोजन में निमित बनता है। उपादान कारण और निमिस कारण के द्वारा ब्रह्म और ईश्वर यह दो भेद पुरुषवाद के हो जाते हैं।
ब्रह्मवाद का मन्तव्य है कि जैसे मकड़ी जाले के लिये, वटवृक्ष जों लिये कारण होता है, उसी तरह पुरुष समस्त जगत के प्राणियों की सृष्टि, स्थिति, प्रलय का कारण है । जो हुआ है, जो होगा, जो मोक्ष का स्वामी है. आहार से वृद्धि को प्राप्त होता है. गतिमान है, स्थिर है, दूर है, निकट है, धेतन और अचेतन सब में व्याप्त है और सबके बाल है, वह सब ब्रह्म ही है। इसलिये इसमें नानात्व नहीं है, लेकिन जो कुछ भी दिखता है वह बह्म का प्रपंच दिखता है और ब्रह्म को कोई नहीं देखता।'
१ कर्णनाम इवाशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव लक्षः स हेतु सर्व जन्मिनाम् ।।
---उपनिषद २ (क) पुरुष एवेदं सर्थ यद्भूतं यन्त्र भाष्यम् । उतामृतत्वस्येशामा यदन्नेनाति रोहति ।
...म्वेव पुरुषसक्स (ख) यदेजति यन्नजति यद दूरे यदन्तिक । बसन्तरस्य सर्वस्प यदुत सर्वस्यारम चाहतः ।।
—ईशावास्योपनिषद (ग) सर्व व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । * आराम तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कंचन !! ----छान्दोग्य उ० ३.१४