Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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हैं आदि । नियतिवादी दृष्टिकोण के सम्बन्ध में सूचकृतांग टीका १/१/२ में संकेत किया गया हैप्राप्तध्यो निप्रति बसाश्रयेण योऽयः सोऽवश्यं भवति नृणां शुमामामो या मतानां महति कृतेऽपि प्रयरने माभाव्यं भवति म माशिनोऽस्ति माशः ।। ___ मनुष्यों को निर्यात के कारण जो भी शुभ और अशुभ प्राप्त होना है. वह अवश्य प्राप्त होता है । प्राणी कितना भी प्रशस्त कर ले, लेकिन जो नहीं होना है, वह महीं ही होगा और जो होना है, उसे कोई रोक नहीं सकता है । सब जीवों का सब कुछ नियत है, और वह अपनी स्थिति के अनुसार होगा।
यहच्छावाद---जिस विषय में कार्यकारण परम्परा का सामान्य ज्ञान नहीं हो पाता है, उसके सम्बन्ध में पस्छा का सहारा लिया जाता है । यदृच्छा थानी अकस्मात ही कार्य-कारण का सम्बन्ध न जुड़ने पर ममीन कार्य की उत्पत्ति हो जाना । यहच्छा में एक प्रकार की उपेक्षा की भावना अलकती है, उसमें कार्यकारण भाथ आदि पर विचार करने का अवसर नहीं है।
पोरुधवाय--पुरुषार्थ, प्रयत्न आदि इसके दूसरे नाम हैं । पुरुषार्थवाद का अपना दर्शन है । उसका कहना है कि संसार के प्रत्येक कार्य के लिये प्रयत्न होना जरूरी है। बिना पुरुषार्थ के कोई भी कार्य सफल नहीं होता है । संसार में जो कुछ भी उन्नति होती है, वह सब पुरुषार्थ का परिणाम है। यदि पेट में भूख मालूम पड़ती है तो उसकी निवृत्ति के लिये प्रयत्न करला पोहा, भूख की शाति विचारों से नहीं हो जायेगी । संसार में जितने भी पदार्थ हैं उनका स्वभाष आदि अपमा-अपना है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति पुरुषार्थ के बिना नहीं हो सकती है । इसीलिये कहा है
कुरु कुरु परुषार्थ नि सानन्द हेतोः ।। मुक्ति सुख की प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ करो ! पुरुषार्थ करो !
उक्त वादों के अलावा सबसे प्रमुख वाद है--पुरुषवाद--- ईश्वरवाद । ईश्वरवाद के अतिरिक्त पूर्वोक्त विचारधारायें तो अपने-अपने चिन्तन सक
१ मझिम निकाय २/३.६ में नियतिवाद का वर्णन किया गया है।