Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पाये जानेवाले सन्यास धर्मका चिन्ह भी ऋग्वेदकी ऋचाओंमें नहीं मिलता। (हि. इं० लि. ( विन्टर०), जि० १, पृ०६८)
बैदिक उपासनामें मित्र और वरुणका बड़ा महत्व था। मित्र सूर्यका नाम है, सूर्य दिनके स्वामी हैं। चन्द्र तारा आदिसे सुशोभित आकाशका नाम वरुण है। वरुण रात्रिके स्वामी हैं। आजकल मित्रके नामसे कोई पूजा नहीं होती । हाँ, सूर्यके नामोंके पाठमें मित्र शब्द भी आजाता है। वरुणका भी वह पद नहीं रहा । तीसरे देव, जिनका वैदिक उपासनामें महत्त्व है, अग्नि है। ऋग्वेदका पहला मंत्र है--- अग्निमीडे पुरोहितम् । यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम् । अग्नि देवोंके पुरोहित हैं। पुरोहितका अर्थ है आगे रखा हुआ। अग्निमें आहुति देकर ही देवोंको तुष्ट किया जा सकता है। अतः अन्य सब देवोंकी उपासना भी अग्निके द्वारा ही हो सकती है। हिन्दुओंमें यज्ञ यागादिके बन्द हो जानेसे अग्निका भी पुराना महत्त्व जाता रहा। किन्तु पारसियोंमें अग्निका वही पुराना पद है। अग्निके द्वारा ही पारसी लोग उपासना करते हैं। ___ चौथे देवता हैं इन्द्र । ऋग्वेदमें जितनी स्तुति इन्द्रकी है उतनी किसी अन्य देवकी नहीं है। बल्कि सब देवोंकी मिलकर भी नहीं है। इन्द्रमें सब देवोंके गुण वर्तमान हैं। वह सब देवोंसे बड़े हैं । उनके बराबर कोई उपास्य नहीं, उनके समान मनुष्योंका कल्याण करनेवाला दूसरा नहीं। उन्हें इन्द्र, वृत्रघ्न, वृत्रहा, माघवा, शतक्रतु आदि नामोंसे पुकारा गया है (आ० प्रा० पृ० ५६-५७)।
अग्नि और सोमकी महिमा केवल इन्द्रसे ही कम है। सोम मूलतः बनस्पति था। वैदिक आर्यों में सोमपानकी प्रथा व्यापक थी। पीछे सोमसे चन्द्रमाका अर्थ भी आगया।
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