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भगवती सूत्र-श.१२. १ चलमाणे आदिप्रश्न
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(९) 'जो निर्जीर्यमाण होने लगा है उसको निर्जीर्ण हुआ' कहना चाहिए । कमो का आत्मा से अपुनर्भाव रूप से पृथक् हो जाना 'निर्जरा' है । यह 'निर्जरा' शब्द का सामान्य अर्थ है, किन्तु यहाँ 'निर्जरा' का अर्थ मोक्ष प्राप्ति रूप है । मोक्ष प्राप्त करने वाले महापुरुष कर्मों की निर्जरा करते हैं, उनके निर्जीर्ग कर्म फिर कभी उनके कर्म रूप से उत्पन्न नहीं होते। उन्हें फिर कभी कर्मों को भोगना नहीं पड़ता । इस प्रकार कर्मों का आत्यन्तिक क्षीण होना यहां पर 'निर्जरा' कही गई है।
निर्जरा भी असंख्यात समयों में होती है। किन्तु जब कर्म निर्जीर्ण होने लगा, उसे 'निर्जीर्ण हुआ' ऐसा कहना चाहिए ।
पहले कपड़े का दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि 'जो कार्य हो रहा है उसे हुआ' कहा जा सकता है । इसी युक्ति से 'चलमाणे चलिए' से लगा कर 'णिज्जरिज्जमाणे णिज्जरिए' तक.नौ प्रश्नों के उत्तर में होती हुई क्रिया को हुआ' कहा गया है।
____ गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से ये प्रश्न किये । इस पर यह तर्क किया जा सकता है कि-गौतम स्वामी तो स्वयं द्वादशांगी के रचने वाले हैं। यह भगवती सूत्र भी द्वादशांगी के अन्तर्गत है, फिर उन्होंने इसके प्रारम्भ में ये प्रश्न कैसे किये ? क्योंकि उन्हें सम्पूर्ण श्रुत का विषय ज्ञात था । वे संशयातीत थे, वे सर्वाक्षर-सन्निपाती थे। अतएव वे सर्वज्ञ तुल्य थे। जैसाकि कहा है
.. संखाइए उ भवे, साहइ जं वा परो उ पुच्छेज्जा ।
ण य गं अणाइसेसी, वियाणइ एस छउमत्थो ।" अर्थ-दूसरे के पूछने पर ऐसा छमस्थ संख्यातीत भवों को कह सकता है, क्योंकि वह अनतिशेषी नहीं है अर्थात् अतिशय ज्ञानवान् होता है । इसलिए वह जानता है । .. इस शंका का समाधान यह है कि गौतम स्वामी के जितने गुण वर्णन किये, वे अब उनमें विद्यमान हैं, वे सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं और संशयातीत भी हैं तयापि वे छद्मस्थ हैं । छद्मस्थ होने के कारण उनके ज्ञान में कुछ कमी रहती है । वह छद्मस्थ ही कैसा जिसके ज्ञान में कुछ कमी न हो ? अतः छद्मस्थ के लिए कुछ भी अनाभोग-अपूर्णता न रहे, ऐसी बात नहीं हो सकती । जैसाकि कहा है
"नहि नामाऽनाभोगः, छमस्यस्येह कस्यचिन्नास्ति । . यस्माद् ज्ञानावरणं, ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥" अर्थ-'किसी भी छद्मस्थ को किसी प्रकार का अनाभोग (अपूर्णता) न हो,' यह
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