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भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न
द्वारा तीव्ररस करना 'भेदन' कहलाता है। कर्म भेदन की इस क्रिया में भी असंख्यात समय लगते हैं । प्रथम समय में जो भिद्यमान हो रहा है उसे 'भेदा गया' कहना चाहिए। ...
... (७) 'जो जलता है वह जला' ऐसा कहना चाहिए । कर्म रूपी काष्ठ को ध्यान रूपी अग्नि से जलाकर नष्ट करना 'दग्व' कर देना कहलाता है। जैसे अग्नि से जलकर लकड़ी राख रूप में परिणत हो जाती है उसी प्रकार आत्मा के साथ जो कर्म परमाणु लगे हुए हैं उन्हें ध्यान रूपी अग्नि से जलाकर फिर पुद्गल रूप बना देना अर्थात् उन्हें अकर्म रूप में पहुंचा देना 'दग्व' करना कहा जाता है।
ध्यान रूपी अग्नि से भस्म किये हुए कर्म फिर भोगने नहीं पड़ते । ध्यान रूप अग्नि से भस्म किये हुए कर्म, कर्म ही नहीं रहते, किन्तु अकर्म रूप पुद्गल बन जाते हैं।
ध्यान रूमी अग्नि से कर्म को अकर्म रूप में परिणत करने में (दग्ध करने में) अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । इतने ही समय में ध्यान के प्रभाव से कर्म भस्म हो जाते हैं । इस अन्तर्मुहूर्त काल में भी असंख्यात समय होते हैं । इन असंख्यात समयों में से पहले समय में जब कर्म दग्ध होने लगते हैं, तब उन्हें 'दग्ध हुए' कहना चाहिए। ..
(८) 'जो मर रहा है वह मरा' ऐसा कहना चाहिए। आयु कर्म से रहित हो जाना 'मरण' कहलाता है। मरने का अर्थ आत्मा का नाश हो जाना नहीं है । आत्मा आयु कर्म के साथ रह कर चेष्टा करता है। जब आत्मा आयु कर्म से रहित हो जाती है, आयु कर्म उसके साथ नहीं रहता है, तब चेष्टा बन्द हो जाती है और आत्मा की मुक्ति हो जाती है । इस प्रकार आयुकर्म के पुद्गों का नाश हो जाना 'मरणं' है। यद्यपि आयुकर्म के पुद्गलों का नाश असंख्यात समय में होता है, फिर भी उन असंख्यात समयों में से प्रथम समय में भी मरा कहा जा सकता है। शास्त्र का कथन है कि प्रत्येक प्राणी का 'आवीचिक+' मरण हो रहा है। 'आवीचिक मरण' के द्वारा प्रत्येक प्राणी प्रति समय मृत्यु को प्राप्त होता जाता है । इस प्रकार यद्यपि मरने में असंख्यात समय लगते हैं, तथापि जो मरने लगा है उसे 'मरा' कहना चाहिए।
___+वीचि का अर्थ तरंग है, उसके समान जो मरण हो अर्थात् जैसे समुद्र में एक तरंग के बाद दूसरी तरंग अविलम्ब आया करती है उसी तरह एक एक क्षण में आयुष्य का नाश हुआ करता है, उसे 'आवी. चिक' मरण कहते हैं। जैसे किसी जीव ने अगले जन्म की ५० वर्ष की आय बांधी। जब वह वर्तमान शरीर को छोड़कर अगला भव धारण करने के लिए जाता है तभी से उसकी ५० वर्ष की आयु में से प्रति क्षण आयु घटती जाती है। इस प्रकार प्रतिक्षण होने वाले मरण को 'बावीषिक' मरण कहते हैं।
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