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आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में अनन्तकाय युक्त आहार आ जाय तो उसे 'परिस्थापन कर दिया जाय ऐसा कथन है ।
आगम साहित्य में आचारांग सूत्रकृतांग आदि में अनेक स्थानों पर आधाकर्म दोषयुक्त आहार श्रमण ग्रहण न करे, ऐसा विधान है। निमित्त कथन भी इसीलिए वज्यं है कि उसमें असत्य लगने की सम्भावना रहती है। महावीर के शासन की अनेक विशेषताओं में ये दो मुख्य विशेषताएँ हैं । रात्रिभोजनविरति पर उन्होंने अत्यधिक बल दिया और ब्रह्मचर्य की साधना पर भी उनका अत्यधिक बल था।
वैदिक परम्परा में वानप्रस्थाश्रम आदि में पत्नियां साथ रहती थीं पर महावीर ने पूर्ण निषेध किया था । इसका मूल अहिंसा की उदात्त साधना में रहा हुआ है । आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी रात्रिभोजन से होने वाली हानियों का उल्लेख किया है। हमने विस्तार के साथ जैन ग्राचार सिद्धान्त स्वरूप और विश्लेषण ग्रन्थ में प्रकाश डाला है। बृहत्कल्प में वर्षावास में विहार करने का और वस्त्र ग्रहण करने का निषेध किया है । ग्लान श्रमणों की सेवा पर विशेष बल दिया गया है और न करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। पर्युषण महापर्व के सम्बन्ध में भी विशेष विधान और प्रायश्चित्त प्रस्तुत उद्देशक में किये गये हैं । इन सबके लिए चौमासी प्रायश्चित्त का उल्लेख किया गया है ।
ग्यारहवां उद्दे शक
ग्यारहवें उद्दे शक में ९१ सूत्र है जिन पर ३२७६ ३९७५ गाथाओं का भाष्य है। प्रस्तुत उद्दे शक में लोह, तांबे, शीशे, सींग, चर्म, वस्त्र प्रभृति के पात्र रखने, उसमें आहार करने का निषेध है । धर्म की निन्दा और अधर्म की प्रशंसा करने का निषेध है। गृहस्थ के शरीर का परिकर्म करना स्वयं को या अन्य को डराना, स्वयं या अन्य को विस्मृत करना, स्वयं को वा अन्य को विपरीत दिखाना। जो व्यक्ति सामने है उसके धर्म प्रमुख के सिद्धान्तों की आचारादि की मिथ्या प्रशंसा करना। दो विरोधी राज्यों के मध्य पुनः पुनः गमनागमन करना दिवसभोजन की निन्दा, रात्रिभोजन की प्रशंसा । मद्य-मांस आदि के ग्रहण का निषेध | स्वच्छन्दाचारी की प्रशंसा करने का निषेध । अयोग्य व्यक्तियों को दीक्षा देने का निषेध । अयोग्य से सेवा कराने का निषेध । अचेल या सचेल साधु का अचेल या सचेल साध्वियों के साथ रहना निषिद्ध है। चूर्ण नमस आदि को रात्रि में रखना, आत्मघात करने बालों की प्रशंसा करना आदि दोषों के सेवन करने वालों को गुरुचौमासी प्रायश्चित आता है। प्रस्तुत उद्देशक में जिन-जिन विषयों की चर्चाएं हुई हैं, अन्य आगमों में उसका निर्देश है। विवेचक मुनिप्रवर ने अपने विवेचन में यत्रतत्र उन स्थलों का निर्देश किया है । विस्तारभय से उन सभी विषयों पर हम जानकर नहीं लिख रहे हैं । बारहवां उद्देशक
बारहवें उद्दे शक में ४४ सूत्र है और ३९७६-४२२५ गाथाओं में भाष्य लिखकर उन-उन सूत्रों पर विस्तार से विवेचन किया गया है। पहले सूत्र में करुणा से उत्प्रेरित होकर श्रमण न त्रस जीवों को रस्सी से बांधे और न बन्धनमुक्त करे। यह सहज जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है कि अनुकम्पा, करुणा यह सम्यक्त्व का लक्षण है फिर इसका निषेध क्यों ? उसका मूल कारण है कि उसे निस्पृहभाव से संयमसाधना करनी है। यदि वह संयम साधना
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आचारांग २, १1१
आचारांग २।१।९
सूत्रकृतांग १।१०१६-१७
जैन आचार सिद्धान्त स्वरूप और विश्लेषण, पृ. ८६६
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