Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध कम है, उनका ज्ञान भी अविकसित ही रहेगा। उन्हें इस बात का परिबोध नहीं हो पाएगा कि मैं पूर्व, पश्चिम आदि किस दिशा से आया हूँ? इस विशिष्ट परिबोध से अनभिज्ञ या ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की न्यूनता वाले किन्हीं जीवों को सूत्रकार ने 'एगेसिं' इस पद से अभिव्यक्त किया है। ____णो सण्णा भवइ' का अर्थ है-ज्ञान नहीं होता। यहाँ नहीं अर्थ का परिबोधक ‘णो' पद है। प्रश्न हो सकता है कि 'णो' के स्थान पर 'अ' शब्द से काम चल सकता था। ‘णो' और 'अ' दोनों अव्यय निषेधार्थक हैं। फिर यहां 'अ' का प्रयोग न करके ‘णो' पद देकर एक मात्रा का अधिक प्रयोग क्यों किया? इसका उत्तर यह है कि ‘णो- और 'अ' दोनों अव्यय निषेधार्थ में प्रयुक्त होते हुए भी समानार्थक नहीं है। दोनों में अर्थगत भिन्नता है। इसी कारण सूत्रकार ने 'अ' का प्रयोग न करके ‘णो' का प्रयोग किया है। यदि ‘णो' का अर्थ 'अ' से निकल जाता तो सूत्रकार ‘णो' का प्रयोग करके शब्द का गुरुत्व न बढ़ाते। इससे यह स्पष्ट होता है कि ‘णो' और 'अ' दोनो अव्ययों के अर्थ में कुछ अंतर है।
‘णो' अव्ययपद एक देश का निषेधक है और 'अ' अव्ययपद सर्वदेश का निषेध करता है। जैसे-'न घटोऽघटः' इस वाक्य में व्यवहत 'अघट' शब्द में 'घट' के साथ जुड़ा हुआ 'अ' अव्यय घट का सर्वथा निषेध करता है। परन्तु णो अव्यय किसी भी वस्तु का सर्वथा निषेध नहीं करता। ‘णो सण्णा' से यह ध्वनित नहीं होता कि किन्हीं जीवों में संज्ञा-ज्ञान का सर्वथा अभाव है, क्योंकि आत्मा में ज्ञान का सर्वथा अभाव हो ही नहीं सकता। ज्ञान आत्मा का लक्षण है। उसके अभाव में आत्मस्वरूप रह नहीं सकता। जैसे-प्रकाश एवं आतप के अभाव में सूर्य का एवं सूर्य के अभाव में उसके प्रकाश एवं आतप का अस्तित्व नहीं रह सकता। भले ही घनघोर घटाओं के कालिमामय आवरण से सूर्य का प्रकाश एवं आतप पूरी तरह दिखाई न पड़े, यह बात अलग है। परन्तु सूर्य के रहते हुए उनके अस्तित्व का लोप नहीं होता। उसकी अनुभूति तो होती ही रहती है। इसी तरह का ज्ञान का सर्वथा अभाव होने पर आत्मा का अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा। अतः ज्ञान का सर्वथा अभाव नहीं होता। क्योंकि आझर-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा, परिग्रह-संज्ञा आदि संज्ञाएं तो प्रत्येक संसारी प्राणी में पाई जाती हैं। इन्हीं संज्ञाओं के आधार पर ही जीव का जीवत्व सिद्ध होता है। यदि इन