Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
में लगावे। सम्यक्त्व का विस्तार करने में कभी भी शक्ति का गोपन न करे और उसका परित्याग करने की भी न सोचे। सम्यक्त्व का प्रकाश धुंधला न पड़ जाए। इसके लिए उसे उसके अतिचारों-दोषों से बच कर रहना चाहिए। लोकैषणा भी जीवन को गिराने वाली है। लोकैषणा से यहां पुत्र, धन, काम-भोग, विषय-वासना, विलासिता आदि की इच्छा-कामना समझनी चाहिए। यह विषयेच्छा कर्म-बन्ध एवं दुःखों की परम्परा को बढ़ाने वाली है। अतः मुमुक्षु को लोकैषणा से निवृत्त होना चाहिए।
जिस व्यक्ति के जीवन में लोकेषणा नहीं होती, उसके मन में कुमति भी नहीं होती है। इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जस्स नत्थि इमा पाई अण्णा तस्स कओ सिया? दिळं सुयं मयं विण्णायं जं एवं परिकहिज्जइ, समेमाणा पलेमाणा पुणोपुणो जाइं पकप्पंति॥129॥ ____छाया-यस्य नास्ति इयं ज्ञातिः तस्यान्या कुतः स्याद् ? दृष्टं श्रुतं मतं विज्ञातं यदेतत् परिकथ्यते शाम्यन्तः प्रलीयमानाः पुनः पुनः जातिं प्रकल्पयन्ति।
पदार्थ-जस्स-जिस मुमुक्षु पुरुष के मन में। इमा-यह। जाई-जाति-लोषणा बुद्धि। नत्थि-नहीं है। तस्स-उसके। अण्णा-सावध प्रवृत्ति। कओ-कहां से। सिया-हो। दिटुं-देखा हुआ। सुयं-सुना हुआ। मयं-माना हुआ। विण्णायंविशेषता से जाना हुआ। जं-जो। एयं-यह। परिकहिज्जइ-मेरे द्वारा कहा जाता है, अर्थात् जो कुछ मैं कहता हूँ वह सब सर्वज्ञोक्त है तथा जो सर्वज्ञोक्त कथनानुसार क्रिया नहीं करते, उनकी जो दशा होती है, अब उसके विषय में कहते हैं-समेमाणा-भोगों में आसक्त एवं। पलेमाणा-मनोज्ञ इन्द्रियों के अर्थ में मूर्छित होते हुए। पुणोपुणो-बार-बार । जाइं-एकेन्द्रियादि जातियों में। पकप्पन्तिपरिभ्रमण करते हैं।
मूलार्थ-जिसको यह लोकैषणा नहीं है, उसको अन्य-सावद्य-रूप प्रवृत्ति कहां से हो सकती है? जो यह कहा जाता है कि वह सर्वज्ञों द्वारा देखा हुआ, सुना हुआ, माना हुआ और विशेषता से जाना हुआ है, कि जो जीव लोकैषणा के त्यागी नहीं