Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
732
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध लेता है। किसी भी पदार्थ में उसकी ममता नहीं रहती है। वह इस बात को भली-भांति जानता है कि ये भोग के साधन अस्थायी हैं; और तो क्या देवों का विपुल ऐश्वर्य भी अस्थायी है। वे भी एक दिन अपनी ऐश्वर्य सम्पन्न स्थिति से गिर जाते हैं। जब देवों की यह स्थिति है-जिन्हें लोग अमर कहते है, तो मनुष्य की क्या गिनती है? ऐसा सोचकर वे कभी भी पाप कर्म का आचरण नहीं करते हैं। समस्त सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग कर सदा संयम साधना में संलग्न रहते हैं। ऐसे व्यक्ति ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।
परन्तु, जो युवक साधना पथ को स्वीकार करके भी उसमें ग्लानि को प्राप्त होते हैं, उनके सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-आहारोवचया देहा परीसहपभंगुरा पासह एगे सविदिएहिं परिगिलायमाणेहिं॥205॥
छाया-आहारोपचया देहाः परीषह प्रभंजिनः (भंगुरा) पश्यत एके सर्वैरिन्द्रियैः परिग्लायमानैः।
पदार्थ-पासह-हे शिष्य! तू देख। आहारोवचया-आहार से उपचित। देहाशरीर में। परीसह-परीषहों के उत्पन्न होने पर। एगे-कई एक व्यक्ति। सविदिएहिसब इन्द्रियों से। परिगिलायमाणेहि-ग्लानि को, या। पभंगुरा-नाश को प्राप्त होते हैं।
मूलार्थ-हे शिष्य! तू देख, यह आहार से परिपुष्ट हुआ शरीर परीषहों के उत्पन्न होने पर विनाश को प्राप्त होता है। अतः कुछ साधक परीषहों के उत्पन्न होने पर सब तरह से ग्लानि या नाश को प्राप्त होते हैं।
हिन्दी-विवेचन
शरीर की वृद्धि अनुकूल आहार पर आधारित है। योग्य आहार के अभाव में शरीर क्षीण होता रहता है और इन्द्रियां भी कमजोर हो जाती हैं। अतः यह शरीर
1. धन-धान्य, घर-परिवार आदि बाह्य साधन-सामग्री बाह्य ग्रन्थि-गांठ कहलाती है और
राग-द्वेष, ममत्व एवं आसक्ति भाव आदि मनोविकार अभ्यन्तर ग्रन्थि कहलाते हैं और . बाह्य एवं अभ्यन्तर ग्रन्थि का त्यागी साधक निर्ग्रन्थ कहलाता है।