Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8
है। ऐसी उत्कट साधना को साधकर ही साधक कर्मबन्धन से मुक्त होता है । अतः उसे सदा परीषहों को सहने का प्रयत्न करना चाहिए।
इस विषय में कुछ और बातें बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - पाणा देहं विहिंसन्ति, ठाणाओ नवि उब्भमे । आसवेहिं विवित्तेहिं, तिप्पमाणे अहियास ॥10॥
छाया - प्राणा (प्राणिनः ) देहं विहिंसन्ति, स्थानात् नापि उद्भ्रमेत् । आस्रवैः विविक्तैः तप्यमानः अध्यासयेत ॥
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पदार्थ - पाणा - प्राणी । देहं - शरीर की । विहिंसंति - हिंसा कर रहे हैं अतः मुनि । ठाणाओ - उस स्थान से । नवि उब्भमे – उठकर अन्यत्र न जावे । आसवेहिंआश्रवों से। विवित्तेहिं-रहित होने के कारण जो मुनि शुभ अध्यवसाय वाला है, वह उन प्राणियों के द्वारा भक्षण किए जाने पर भी । तिप्पमाणे – उस वेदना को अमृत के समान सिंचन कार्य मानता हुआ । अहियासए - सहन करे ।
मूलार्थ - हिंसक प्राणियों द्वारा शरीर की हिंसा होने पर भी मुनि उनके भय से उठकर अन्य स्थान पर न जाए । आस्रवों से रहित होने के कारण जो शुभ अध्यवसाय वाला मुनि है, वह उस हिंसाजन्य वेदना को अमृत के समान सिंचन की हुई समझकर सहन करे ।
. हिन्दी - विवेचन
पूर्व की गाथा में हिंस्र जन्तुओं द्वारा दिए गए परीषहों को सहन करने का उपदेश दिया गया है। इस गाथा में बताया गया है कि किसी भी हिंस्र जन्तु को सामने आते देखकर अनशन व्रत की साधना में संलग्न मुनि उस स्थान से उठकर अन्यत्र न जाए। वह उनके द्वारा उत्पन्न होने वाली वेदना को अमृत के समान समझे । इससे यह स्पष्ट किया गया है कि अनशन व्रत को स्वीकार करने वाला साधक आत्मचिन्तन में इतना संलग्न हो जाए कि उसे अपने शरीर का ध्यान ही न रहे । शरीर पर होने वाले प्रहारों की वेदना मनुष्य को तभी तक परेशान करती है, जब तक उसका मन शरीर पर स्थित है । जब साधक आत्मचिन्तन में गहरी डुबकी लगा लेता है, तो उसे शारीरिक पीड़ाओं की कोई अनुभूति नहीं होती और वह समभाव