Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 908
________________ नवम अध्ययन, उद्देशक 1 819 अपरिचित होने के कारण उन्हें अधिक परीषह उत्पन्न होते थे और उनको समभाव पूर्वक सहन करने से कर्मो की अधिक निर्जरा होती थी। अस्तु, आबद्ध कर्मों को क्षय करने के लिए भगवान अनार्य देश में पधारे और वहां उन्होंने समभाव से अनेक कष्टों को सहन किया, परन्तु किसी भी व्यक्ति पर क्रोध एवं द्वेष नहीं किया। भगवान महावीर की यह उत्कृष्ट साधना सब के लिए सुगम नहीं है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- फरुसाइं दुतितिक्खाइं, अइअच्च मुणी परक्कममाणे। अघायनट्टगीयाई, दंडजुद्धाइं मुट्ठिजुद्धाइं ॥॥ छाया- परुषाणि दुस्तितिक्षाणि, अतिगत्य मुनिः पराक्रममाणः। आख्यात नृत्यगीतानि, दण्ड युद्धानि मुष्टि युद्धानि। पदार्थ-अघाय-अनार्य पुरुषों द्वारा कहे हुए। दुतितिक्खाइं-अत्यन्त तीक्षण एवं असहनीय। फरुसाइं-कठोर वचनों को। अइअच्च-सुनकर भी उन पर ध्यान नहीं देते हुए। मुणी-भगवान महावीर। परक्कममाणे-उन्हें सहन करने का पुरुषार्थ करते थे, और वे। नट्टगीयाइं-नृत्य एवं गीतों को देखते एवं सुनते नही थे। दंड जुद्धाइं-दंड युद्ध एवं। मुट्ठि जुद्धाइं-मुष्टि-युद्ध को देखकर विस्मित नहीं होते थे। मूलार्थ-भगवान महावीर अनार्य पुरुषों के द्वारा कथित कठोर एवं असह्य शब्द-प्रहारों से प्रतिहत न होकर, उन शब्दों को समभावपूर्वक सहन करने का प्रयत्न करते थे और प्रेमपूर्वक गाए गए गीतों एवं नृत्य की ओर ध्यान ही नहीं देते थे और न दंड-युद्ध एवं मुष्टि-युद्ध को देखकर विस्मित ही होते थे। हिन्दी-विवेचन साधक के लिए आत्मचिन्तन के अतिरिक्त सब बाह्य कार्य गौण होते हैं। वह अपनी निन्दा एवं स्तुति से ऊपर उठकर आत्मसाधना में संलग्न रहता है। भगवान महावीर भी सदा अपनी साधना में संलग्न रहते थे। कोई उन्हें कठोर शब्द कहता, कोई गालियां देता, तब भी वे उस पर क्रोध नहीं करते थे। वे उसे समभावपूर्वक सह लेते थे। इसी तरह कोई उनकी प्रशंसा करता या कहीं नृत्य-गान होता या मुष्टि एवं

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