Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 977
________________ 888 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध कीरंतंपि-पाप कर्म करनेवाले व्यक्तियों का। नाणुजाणित्थो-अनुमोदन भी नहीं करते थे। मूलार्थ-हेय-ज्ञेय और उपादेय रूप पदार्थों को जानकर श्रमण भगवान महावीर ने स्वयं पापकर्म का आचरण नहीं किया, न दूसरों से करवाया और पापकर्म करने वालों का अनुमोदन भी नहीं किया। हिन्दी-विवेचन जीवन में साधना के प्रविष्ट होते ही मुनि सबसे पहले तीन करण और तीन योग से पापकार्य से निवृत्त होने की प्रतिज्ञा करता है। वह मन-वचन और शरीर इन तीनों योगों से न स्वयं पापकर्म करता है, न अन्य से करवाता है और न पापकर्म करने वाले का समर्थन करता है। चूंकि पापकर्म से अशुभ कर्म का बन्ध होता है, संसार परिभ्रमण बढ़ता है, इसलिए पदार्थों के यथार्थ स्वरूप के परिज्ञाता भगवान महावीर ने दीक्षित होने के बाद कभी भी पापकर्म का सेवन नहीं किया। वे त्रिकरण और त्रियोग से पापकर्म से निवृत्त रहे। भगवान के त्याग-निष्ठ जीवन का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- गामं पविसे नगरं वा घासमेसे कडं परट्ठाए। सुविसुद्ध मेसिया भगवं आयत जोगयाए सेवित्था॥9॥. छाया- ग्रामं प्रविश्य नगरं वा, ग्रामन्वेषयेत् कृतं पराय। ___ सुविशुद्धं एषित्वा भगवान आयतयोगतया सेवितवान्। पदार्थ-गाम-गांव। वा-अथवा। नगरं-नगर में। पविसे-प्रवेश करके, वे। घासमेसे-आहार की गवेषणा करते। परट्ठाए-दूसरे के गृहस्थ के द्वारा अपने परिवार के लिए। कडं-बनाए गए आहार में से। सुविसुद्धमेसिया-विशुद्ध आहार की गवेषणा करके। भगवं-भगवान। आयत जोगयाए-ज्ञान पूर्वक संयत योग से। सेवित्था-उस शुद्ध आहार का सेवन करते थे। - मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर गांव या शहर में प्रविष्ट होकर गृहस्थ के . द्वारा अपने परिवार के पोषण के लिए बनाए गए आहार में से अत्यन्त शुद्ध निर्दोष । फत पराथाय।

Loading...

Page Navigation
1 ... 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026