Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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नवम अध्ययन, उद्देशक 4
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इनका स्वरूप है। भगवान महावीर इन दोषों से सर्वथा निवृत्त होकर अपनी साधना में समाहित रहते थे। वे हिंसा से निवृत्त होकर सदा संयम में संलग्न रहते थे।
सूत्रकार फिर से इसी विषय में कहते हैंमूलम्- अवि सूइयं वा सुक्कं वा सीयं पिंड पुराण कुम्मासं।
अदु वुक्कसंपुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धे दविए॥13॥ . छाया- अपिसूपिकं वा शुष्कं वा, शीत पिंडे पुराणकुल्माषं।
____ अथ बुक्कस पुलाकं वा, लब्धे पिंउं आलब्ध द्रविकः॥ पदार्थ-अवि-सम्भावानार्थ में है। सूइयं-भगवान दधि आदि के आर्द्र आहार। वा-अथवा। सुक्कं वा-चणक आदि के शुष्क आहार अथवा। सीयं पिंड-शीत पिंड-बासी आहार तथा। पुराण कुम्मासं-पुराने कुल्माष का आहार। अदु-अथवा। वुक्कसं-जीर्ण धान्य का आहार। पुलागं वा-जौ का आहार अथवा। लद्धेपिंडेस्वादिष्ट आहार के मिलने पर हर्षित नहीं होते और। अलद्धे-स्वादिष्ट तथा पर्याप्त आहार न मिलने पर चिन्तातुर नहीं होते। दविए-वे सदा संयम युक्त रहकर अपने साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न शील रहते थे।
मूलार्थ-दधि आदि से मिश्रित आहार, शुष्क आहार, बासी आहार, पुराने कुल्माष और पुराने धान्य का बना हुआ आहार, जौ का बना हुआ आहार तथा सुन्दर आहार के मिलने या न मिलने पर संयम युक्त भगवान किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं करते थे। हिन्दी-विवेचन - साधु का जीवन आत्म-साधना का जीवन है। इसके लिए वह शरीर का ध्यान भी रखता है। क्योंकि साधना के लिए उसका माध्यम भी आवश्यक है। परन्तु वह उसमें आसक्त नहीं रहता है। साधना में सहयोगी होने के कारण वह शरीर को
→ किरिया कतिविहा पण्णता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-जेणं अप्पणो वा परस्स
दा तदुभयस्स वा असायं वेदणं उदीरेति से तं पारियावणिया किरिया ॥5॥ पाणाइवाय किरियाणं भंते! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीविया ओववरोयइ सेतं पाणाइवाय किरिया॥6॥
-पन्नबना सूत्र, पद 22
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