Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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पारिभाषिक शब्दकोश
917 द्वीन्द्रिय-जिन प्राणियों के शरीर और जिह्वा सिर्फ दो इन्द्रियां ही हैं।
धर्मध्यान-आत्मा एवं लोक के यथार्थ स्वरूप का आत्मज्योति को विकसित करने के लिए, चिन्तन करना।
धर्मसंज्ञा-धर्म-पथ या साधनामार्ग पर चलने की भावना का उबुद्ध होना। धुत-आत्मा पर लगे हुए राग-द्वेष के मैल को हटाना। ध्यान-चिन्तन-मनन।
ध्रुवाचारी-मोक्ष प्राप्ति के साधन-ज्ञान, दर्शन और चारित्र का परिपालन करने वाला साधक।
धृति-सहनशीलता। ध्रौव्य-नित्यत्व, वस्तु का सदा सर्वदा स्थायी रहना।
नव तत्व-जैन दर्शन जीव, अजीव (जड़), पुण्य, पाप, आस्रव (कर्म के आने का द्वार), संवर (आने वाले कर्मों को रोकने की एक प्रक्रिया), निर्जरा (कर्मों को एक देश से क्षय करने की साधना), बन्ध (कर्मों का बँधना) और मोक्ष (कर्मों से सर्वथा मुक्त होना), इन नौ को मूल तत्त्व (Elements) स्वीकार करता है।
नागासाकी और हिरोशिमा-जापान के दो बड़े शहर, जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका ने अणुबम गिराकर नष्ट कर दिया था।
नास्तिक-जिसे आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग, नरक एवं पुनर्जन्मादि में विश्वास नहीं
निकाचित-जो कर्म इतने चिकने एवं प्रगाढ़ बँध गए हैं कि वे जिस रूप में बँधे हैं, उन्हें उसी रूप में भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता। ___ निगोद-जीव के उत्पत्ति स्थान की वह योनि जहां एक शरीर में अनन्त जीव रहते हैं और अनन्त काल तक वहीं जन्म-मरण करते रहते हैं।
निग्रह-दमन। निदान-कामना-फल की इच्छा एवं वासना।
निधत-कषायों के कारण जिन कर्म वर्गणा के पुद्गलों का आत्म प्रदेशों के साथ बन्ध हो चुका है।