Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
890
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
छाया- अथ वायसा बुभुक्षार्ताः ये चान्ये रसैषिणः सत्वाः।
ग्रासैषणाय तिष्ठति सततं निपतितान् च प्रेक्ष्य ॥ पदार्थ-सययं-निरन्तर। निवइए य-भूमि पर गिरे हुए। घासेसणाए-आहार को खाने के लिए। दिगिछत्ता-बुभुक्षित। वायसा-कौवे या। जे-जो। रसेसिणोआहार के इच्छुक हैं। अन्ने सत्ता-अन्य सत्त्व-प्राणी। चिट्ठति-मार्ग में बैठे हुए हैं। पेहाए-उन्हें देखकर विवेक पूर्वक चलते, जिससे उनके आहार करने में विघ्न न पड़े। ___ मूलार्थ-भूख से बुभुक्षित वायसादि पक्षियों को मार्ग में गिरे हुए अन्न को. खाते हुए देखकर वे उन्हें नहीं उड़ाते हुए विवेक पूर्वक चलते, जिससे उनके आहार में विघ्न न पड़े। हिन्दी-विवेचन
साधु सब जीवों का रक्षक है। वह स्वयं कष्ट सह सकता है। परन्तु अपने : निमित्त से किसी भी प्राणी को कष्ट हो तो उस कार्य को वह कदापि नहीं कर सकता। साधु के लिए आदेश है कि वह भिक्षा के लिए जाते समय भी यह ध्यान रखे कि उसके कारण किसी भी प्राणी की वृत्ति में विघ्न न पड़े। भगवान महावीर ने स्वयं इस नियम का पालन किया था। वे उस घर में या उस मार्ग से आहार को नहीं जाते थे, जिस घर के आगे या मार्ग में काग-कुत्ते एवं गरीब भिखारी रोटी की आशा से खड़े होते थे। क्योंकि उनके पहुंच जाने से उन्हें अन्तराय लगती थी। वह दातार उन गरीब भिखारियों को भूलकर भगवान को देने लगता था और इससे उनके मन में द्वेष की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक था। इसलिए भगवान ऐसे घर में भिक्षा को नहीं जाते थे, जिसके आगे अन्य प्राणी रोटी की अभिलाषा लिए हुए खड़े हों।
इसी विषय में सूत्रकार और भी बताते हैंमूलम्- अदुवा माहणं च समणं च, गाम पिंडोलगं च अतिहिंवा।
सोवाग मूसियारिंवा, कुकुरंवावि विट्ठियं पुरओ॥11॥ छाया- अथवा माहनं च श्रमणं वा ग्रामपिंडोलकं च अतिथिं वा।
श्वपाक मूषिकारिं वा कुकुरंवापि विस्थितं पुरतः॥ .