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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध कीरंतंपि-पाप कर्म करनेवाले व्यक्तियों का। नाणुजाणित्थो-अनुमोदन भी नहीं करते थे।
मूलार्थ-हेय-ज्ञेय और उपादेय रूप पदार्थों को जानकर श्रमण भगवान महावीर ने स्वयं पापकर्म का आचरण नहीं किया, न दूसरों से करवाया और पापकर्म करने वालों का अनुमोदन भी नहीं किया। हिन्दी-विवेचन
जीवन में साधना के प्रविष्ट होते ही मुनि सबसे पहले तीन करण और तीन योग से पापकार्य से निवृत्त होने की प्रतिज्ञा करता है। वह मन-वचन और शरीर इन तीनों योगों से न स्वयं पापकर्म करता है, न अन्य से करवाता है और न पापकर्म करने वाले का समर्थन करता है। चूंकि पापकर्म से अशुभ कर्म का बन्ध होता है, संसार परिभ्रमण बढ़ता है, इसलिए पदार्थों के यथार्थ स्वरूप के परिज्ञाता भगवान महावीर ने दीक्षित होने के बाद कभी भी पापकर्म का सेवन नहीं किया। वे त्रिकरण और त्रियोग से पापकर्म से निवृत्त रहे।
भगवान के त्याग-निष्ठ जीवन का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- गामं पविसे नगरं वा घासमेसे कडं परट्ठाए।
सुविसुद्ध मेसिया भगवं आयत जोगयाए सेवित्था॥9॥. छाया- ग्रामं प्रविश्य नगरं वा, ग्रामन्वेषयेत् कृतं पराय।
___ सुविशुद्धं एषित्वा भगवान आयतयोगतया सेवितवान्। पदार्थ-गाम-गांव। वा-अथवा। नगरं-नगर में। पविसे-प्रवेश करके, वे। घासमेसे-आहार की गवेषणा करते। परट्ठाए-दूसरे के गृहस्थ के द्वारा अपने परिवार के लिए। कडं-बनाए गए आहार में से। सुविसुद्धमेसिया-विशुद्ध आहार की गवेषणा करके। भगवं-भगवान। आयत जोगयाए-ज्ञान पूर्वक संयत योग से। सेवित्था-उस शुद्ध आहार का सेवन करते थे। - मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर गांव या शहर में प्रविष्ट होकर गृहस्थ के . द्वारा अपने परिवार के पोषण के लिए बनाए गए आहार में से अत्यन्त शुद्ध निर्दोष
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फत पराथाय।