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नवम अध्ययन, उद्देशक 4
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आहार की गवेषणा करते और उस निर्दोष आहार को संयत योगों से विवेक पूर्वक सेवन करते थे। हिन्दी-विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि साधु सारे दोषों से निवृत्त होता है। वह कोई ऐसा कार्य · नहीं करता, जिससे किसी प्राणी को कष्ट होता हो। यहां तक कि अपने शरीर का निर्वाह करने के लिए भी वह स्वयं भोजन नहीं बनाता। क्योंकि इसमें पृथ्वी, पानी आदि 6 काय की हिंसा होती है। अतः साधु गृहस्थ के घरों में से निर्दोष आहार की गवेषणा करते हैं।
भगवान महावीर भी जब गांव या शहर में भिक्षा के लिए जाते तो वे गृहस्थ के अपने एवं अपने परिवार के पोषण के लिए बनाए गए निर्दोष आहार की गवेषणा करते। उसमें भी आहार के 42 दोषों को छोड़कर शुद्ध आहार ग्रहण करते और आहार करने के 5 दोषों को त्याग कर आहार करते। इस तरह 47 दोषों का त्याग करके वे - आहार करते थे। उसमे 16 उद्गमन सम्बन्धी दोष हैं जो अनुराग एवं मोह वश गृहस्थ लगा सकता है, 16 उत्पादन के दोष हैं, जो रस लोलुपी साधु द्वारा लगाए जा सकते हैं और 10 एषणा के दोष हैं, जो गृहस्थ एवं साधु दोनों द्वारा लगाए जा सकते हैं और 5 आहार करते समय के दोष हैं, जिनका सेवन साधु के द्वारा ही होता है।
प्रस्तुत गाथा में दिए गए विभिन्न पदों से भी इन दोषों की ध्वनि निकलती है। जैसे-‘परट्ठाए' पद से 16 उद्गमन के दोषों का विवेचन किया गया है। ‘सुविसुद्ध' से 16 उत्पादन दोष का एवं 'एसिया' पद से 10 एषीणय दोषों का वर्णन किया गया है और 'आयत जोगयाए सेविता' पदों से आहार करते समय के 5 दोषों का वर्णन करके समस्त दोषों का त्याग करके आहार करने का आदेश दिया गया है। भगवान महावीर समस्त दोषों से रहित आहार-पानी की गवेषणा करते और ऐसे शुद्ध एवं निर्दोष आहार को अनासक्त भाव से ग्रहण करके विचरण करते थे।
इस विषय पर और प्रकाश डालते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अदु वायसा दिगिंछत्ता जे अन्ने रसेसिणो सत्ता।
घासेसणाए चिट्ठन्ति सयय निवइए य पेहाए॥10॥