Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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नवम अध्ययन, उद्देशक 1
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योगरूप स्रोत को। सव्वसो-सर्व प्रकार से। णच्चा-कर्म बन्धन जानकर उनसे निवृत्त होने का उपदेश दिया है।
मूलार्थ-भावज्ञ और ज्ञानी भगवान ने ईर्यापथिक और साम्परायिक क्रिया को जिसे कि अनुपम और कर्मों का नाश करने वाली संयमानुष्ठान रूप कहा है तथा कर्मों के आने के स्रोत और हिंसा रूप स्रोत एवं योगरूप स्रोत को कर्म बन्धन का कारण रूप जानकर इनकी शुद्धि के लिए संयमानुष्ठान का प्रतिपादन किया है। हिन्दी-विवेचन ।
प्रस्तुत गाथा में दो प्रकार की क्रियाओं का वर्णन किया गया है-1-साम्परायिक और 2-ईर्यापथिक। कषायों के वश जो क्रिया की जाती है, वह साम्परायिक क्रिया कहलाती है। उससे सात या आठ कर्मों का बन्ध होता है और आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है। राग-द्वेष और कषाय-रहित भाव से यत्ना पूर्वक की जाने वाली क्रिया ईर्यापथिक क्रिया कहलाती है। इस क्रिया से संसार नहीं बढ़ता है। यह क्रिया आत्मा को निष्क्रिय बनाने में सहायक होती है। भगवान महावीर दोनों प्रकार की क्रियाओं के स्वरूप को भली-भांति जानते थे। वे साम्परायिक क्रिया का सर्वथा त्याग कर चुके थे और ईर्या पथिक क्रिया का उच्छेद करने में प्रयत्नशील थे।
. क्रिया के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए आगम में कहा है कि अयत्ना-विवेक रहित गमनागमन आदि कार्य करते हुए प्राणी साम्परायिक क्रिया के द्वारा कर्मों का बन्ध करता है और आगम के अनुसार यत्ना-विवेक पूर्वक क्रिया करते हुए ईर्याप्रत्यय कर्म का बन्ध करता है। इससे स्पष्ट है कि कषाय युक्त भाव से की जाने वाली क्रिया संसार-परिभ्रमण कराने वाली है और कषायरहित अनासक्त भाव से की जाने
1. अणगारस्स णं भंते! अणाउत्तं गच्छमाणस्स व। चिट्ठमाणस्स वा णिसीयमाणस्स वा;
अणाउत्तं वत्थ परिग्गहं कंबलं पाय पुंछणं गेण्हमाणस्स वा; निक्खवमाणस्स वा, तस्स णं भंते! किं इरिया वहिया किरिया कज्जइ; संपराइया किरिया कज्जइ? गोयमा! नो इरिया वहिया किरिया कज्जइ; संपराइया किरिया कज्जइ। से केणठेणं? गोयमा! जस्स णं कोह माणमाया लोभा वोच्छन्ना भवंति तस्स णं इरिया वहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोह मानया लोभा अवोच्छिण्णा भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ, अहासुत्तरियमाणस्स इरिया वहिया किरिया कज्जइ, उसुत्तरियमाणस्स संपरइया किरिया कज्जइ; से णं उसुत्तमेव रियइ सेतेणठेणं।
-भगवती सूत्र 7 : 1