Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
798
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी-विवेचन
परीषहों का संबन्ध शरीर के साथ है। शरीर के रहते हुए ही अनेक तरह की वेदनाएं उत्पन्न होती हैं, अनेक कष्ट सामने आते हैं। शरीर के नाश होने के बाद तत्सम्बन्धित कष्ट भी समाप्त हो जाते हैं। अतः साधक को जीवन की अंतिम सांस तक उत्पन्न होने वाले परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए।
इस गाथा में यह भी बताया गया है कि संवृत्त आत्मा, अर्थात् समस्त दोषों से निवृत्त एवं संवर में स्थित आत्मा एवं ज्ञान संपन्न-सदसद् के विवेक से युक्त साधु ही परीषहों को समभाव से सह सकता है। क्योंकि, जो दोषों को जानता ही नहीं और जो उनसे निवृत्त ही नहीं है, वह साधना के पथ पर चल ही नहीं सकता है। इसलिए सदसद् के विवेक से संपन्न साधक ही सम्यक्तया पादोपगमन अनशन का परिपालन कर सकता है।
इतनी उत्कृष्ट साधना में संलग्न साधक को देखकर यदि कोई राजा उसे भोगों का निमन्त्रण दे तो उस समय उसे क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए
सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- भेउरेसु न रज्जिज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि।
इच्छालोभं न सेविज्जा, धुववन्नं सपेहिया॥23॥ छाया- भिदुरेषु न रज्येत्, कामेषु बहतरेष्वपि।
इच्छा लोभं न सेवेत, ध्रुववर्णं संप्रेक्ष्य ॥ पदार्थ-भेउरेसु-विनाशशील। बहुतरेसु-प्रभुततर। कामेसु-शब्दादि काम गुणों में। इच्छा लोभं-इच्छा रूप लोभ का भी। न सेविज्जा-सेवन न करे। धुववन्नं सपेहिया-निश्चल वर्ण शाश्वती कीर्ति का विचार करके अथवा संयम को जानकर वह इच्छा का परित्याग करे।
मूलार्थ-यदि कोई राजा-महाराजा आदि उक्त मुनि को भोगों के लिए निमंत्रित करे तो वह विनाशशील प्रभुततर काम-भोगों में राग न करे, उनमें आसक्त न होवे। निश्चल कीर्ति को जानकर वह यथावत् संयम-परिपालन करने के लिए इच्छा रूप लोभ का भी सेवन न करे।