Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी - विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि आसक्ति पापकर्म के बन्ध का कारण है। अतः संलेखना एवं संथारे में स्थित साधु उपासकों के द्वारा अपनी प्रशंसा होती हुई देखकर यह अभिलाषा न करे कि मैं अधिक दिन तक जीवित रहूं, जिससे कि मेरी प्रशंसा अधिक होगी। वह कष्टों से घबराकर मरने की भी अभिलाषा न करे । वह जन्म-मरण की अभिलाषा से ऊपर उठकर समभाव पूर्वक संलेखना एवं अनशन की साधना में संलग्न रहे ।
ऐसे साधक को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - मज्झत्थो निज्जरापेही, समाहिमणुपालए। अन्तो बहिं विउस्सिज्ज, अज्झत्थं सुद्धमेस ॥ 5 ॥
छाया - मध्यस्थः निर्जरापेक्षी, समाधिमनुपालयेत् । अन्तः बहिः व्युत्सृज्य अध्यात्मं शुद्धमेषयेत् ॥
पदार्थ - मज्झत्थो - मध्यस्थ भाव में स्थित । निज्जरापेही - निर्जरा को देखने वाला मुनि। समाहिं-सदा समाधि का । अणुपालए - परिपालन करे । अन्तो–अन्तरङ्ग कषायों को और । बहिं- - वा शरीर आदि उपकरणों को । विउस्सिज्ज - अज्झत्थं - मन की । सुद्धं - शुद्धि का । एसए - अन्वेषण करे, अर्थात् मानसिक शुद्धि की अभिलाषा रखे।
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- त्याग कर ।
मूलार्थ - मध्यस्थ भाव में स्थित निर्जरा का इच्छुक मुनि सदा समाधि का परिपालन करे और अन्तरंग कषायों एवं बाह्य शरीरादि उपकरणों को त्याग कर मन शुद्ध करे । हिन्दी - विवेचन
साधना के पथ पर गतिशील आत्मा जीवन-मरण की आकांक्षा का त्याग करके संलेखना को स्वीकार करता है । अतः उसके लिए यह आवश्यक है कि पहले वह कषायों का त्याग करे और उसके पश्चात् उपकरण एवं शरीर का भी परित्याग कर दे । कषाय का त्याग करने पर ही आत्मा में समाधि भाव की ज्योति जग सकती है. और साधक त्याग के पथ पर बढ़कर सभी कर्मों एवं कर्मजन्य साधनों से निवृत्त हो