Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध अतिरिक्त उनके अन्य अभिग्रह का वर्णन भी किया गया जैसे कि मैं अपने लिए लाए हुए अधिक निर्दोष एवं यथा परिगृहीत आहार से निर्जरा को उद्देश्य करके या पर-उपकार के लिए सधर्मी की वैयावृत्य करूंगा या मैं अन्य के अधिक लाये हुए निर्दोष एवं यथा परिगृहीत आहार से निर्जरा के कारण सधर्मियों द्वारा की जाने वाली वैयावृत्य को स्वीकार करूंगा और निर्जरा के लिए अन्य के द्वारा की जाने वाली वैयावृत्य का अनुमोदन भी करूंगा। इस तरह कर्मों की लघुता को मानता हुआ यावत् सम्यग् दर्शन या समभाव को सम्यक्तया जाने। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में अभिग्रहनिष्ठ मुनि के आहार के सम्बन्ध में चारों भंग पूर्व के उद्देशक की तरह ही बताए गए हैं। इसमें अन्तर इतना ही है कि पूर्व के उद्देशक में केवल निर्जरा के लिए वैयावृत्य करने का उल्लेख किया गया था और इस उदेशक में परोपकार एवं निर्जरा दोनों दृष्टियों से वह वैयावृत्य करता है या दूसरे समानधर्मी साधु से वैयावृत्य करवाता भी है। वह यह भी निश्चय करता है कि मैं अपने साधुओं की बीमारी के समय आहार आदि से वैयावृत्य करूंगा या जो साधु वैयावृत्य कर रहा है, उसकी प्रशंसा भी करूंगा। इस तरह वैयावृत्य में परोपकृति एवं कर्मनिर्जरा दोनों
की प्रधानता निहित है। इस तरह मन-वचन और शरीर से सेवा करने, कराने एवं ' अनुमोदना करने वाले साधक के मन में एक अपूर्व आनन्द एवं स्फूर्ति की अनुभूति होती है और उससे उसके कर्मों की निर्जरा होती है। अस्तु, सेवाभाव से साधक की साधना में तेजस्विता आती है और उसकी साधना अन्तर्मुखी होती जाती है। इससे वह कर्मों से हलका बनकर आत्म-विकास की ओर बढ़ता है। अतः साधक को अपनी स्वीकृत प्रतिज्ञा का दृढ़ता से परिपालन करना चाहिए।
मुनि को रोग आदि के उत्पन्न होने पर घबराना नहीं चाहिए। यदि अन्तिम समय निकट प्रतीत हो तो उसे अन्य ओर से अपना ध्यान हटाकर समभाव पूर्वक पंडित-मरण का स्वागत करना चाहिए। इस विषय का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुब्वेणं परिवहित्तए, से अणुपुव्वेणं.