Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 1 क्योंकि अन्य व्रत, नियम एवं साधना इसी के आधार पर पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होती है और इससे प्रत्येक प्राणी को शांति मिलती है। साधक के मन में भी शांति का सागर ठाठे मारता रहता है। मन में संकल्प-विकल्प एवं कलुषता को पनपने का अवसर ही नहीं मिलता। इस कारण अहिंसा को धर्म का प्राण कहा गया है और धर्म अनादि काल से चला आ रहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक काल में होने वाले तीर्थंकर सर्व क्षेमकरी अहिंसा का उपदेश देते हैं। - अतः साधक को अहिंसा धर्म पर श्रद्धा रखना चाहिए। श्रद्धा के बाद वह क्या 'करे, इसको स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-तं आइत्तु न निहे न निक्खिवे जाणित्तु धम्म, जहा तहा, दिलैहिं निव्वेयं गच्छिज्जा, नो लोगस्सेसणं चरे॥128॥
' छाया-तदादाय न गोपयेत्, न निक्षिपेत् ज्ञात्वा धर्म यथा-तथा दृष्टैः निर्वेदं गच्छेत्, नो लोकस्यैषणं चरेत्।
पदार्थ-त-सम्यग्दर्शन को। आइत्तु-स्वीकार करके। न निहे-उसका गोपन न करे। न निक्खिवे-न उसका परित्याग करे। धम्म-धर्म को। जहा-तहा-यथार्थ रूप से। जाणित्तु-जानकर। दिह्रहि-इष्ट या अनिष्ट रूप आदि में। निव्वेयं-वैराग्य भाव। गच्छिज्जा-धारण करे। नो लोगस्सेसणं चरे-परन्तु, लोकैषणा को ग्रहण न करे।
मूलार्थ-सम्यक्त्व को स्पर्श करने के बाद उसकी आराधना में अपनी शक्ति का गोपन नहीं करना चाहिए और मिथ्यात्व के प्रवाह में बहकर उसका परित्याग भी नहीं करना चाहिए। इष्ट-अनिष्ट, रूप-रस आदि में वैराग्य भाव रखे, अर्थात् उनमें आसक्त न बने, न प्रिय वस्तु पर राग करे और न अप्रिय पदार्थ पर द्वेष रखे और लोकैषणा-श्रद्धा-विहीन लोगों का अनुकरण करके इष्ट वस्तु को उपादेय एवं अनिष्ट वस्तु को हेय बुद्धि से ग्रहण न करे। हिन्दी-विवेचन ___ प्रस्तुत सूत्र में अहिंसा में निष्ठा-श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति को दृढ़ शब्दों में कहा गया है कि वह अपनी शक्ति श्रद्धा को दृढ़ बनाने एवं उसके अनुरूप आचरण करने