Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
तरह की शंकाएं पैदा होती हैं कि यह अकेला क्यों घूमता है? फिर उसके सम्बन्ध में झूठ-सच्ची अनेक बातें होती हैं और एकाकी होने के कारण अनेक परीषह उपस्थित हो सकते हैं, उनमें दृढ़ता न रहने के कारण वह कभी संयम-पथ से च्युत भी हो सकता है। इसी दृष्टि को सामने रखकर आगम में अव्यक्त - अगीतार्थ साधु को अकेले विचरने का आदेश नहीं दिया है ।
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एकाकी विचरने का निषेध उत्सर्ग मार्ग में है और वह भी अगीतार्थ मुनि के लिए है। परन्तु, विशेष परिस्थिति में या किसी विशेष कारण से एकाकी विहार करना पेड़े तो गुरु की आज्ञा से गीतार्थ मुनि वैसा करके भी शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है और न उसके संयम से गिरने की संभावना है। एक तो वह परिस्थिति वश जा रहा है और दूसरे गुरु की आज्ञा से जा रहा है और साथ में गीतार्थ होने से वह आगम मर्यादा से भी भली-भांति परिचित है और शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार ही विचरण करता है, इसलिए उसके गिरने की संभावना नहीं रहती ।
अव्यक्त - अगीतार्थ किसे कहते हैं? अव्यक्त की श्रुत और वय की अपेक्षा से चतुर्भंगी बनती है।
1- श्रुत और वय से अव्यक्त - श्रुत में आचार - प्रकल्पागम का अर्थ से अनुशीलन नहीं करने वाला एवं 16 वर्ष की आयु वाला साधक श्रुत एवं वय से अव्यक्त
कहलाता है ।
2 - श्रुत से अव्यक्त और वय से व्यक्त - आचार के अर्थ ज्ञान से रहित, परन्तु सोलह वर्ष से अधिक आयु वाला साधक ।
3- - श्रुत से व्यक्त, वय से अव्यक्त - आचार के ज्ञान से युक्त किन्तु 16 या 16 वर्ष से कम अवस्था का साधक ।
4- श्रुत और वय दोनों से व्यक्त - आचार के ज्ञान से युक्त और सोलह वर्ष से अधिक अर्थात् परिपक्व अवस्था वाला साधक ।
चतुर्थ भंग वाला साधक कारण विशेष से गुरु की आज्ञा से अकेला भी विचर सकता है, क्योंकि वय से परिपक्व एवं श्रुतज्ञान से सम्पन्न होने के कारण परीषह उपस्थित होने पर भी वह साधना मार्ग से भटक नहीं सकता। परन्तु, अगीतार्थ मुनि के ज्ञान अपरिपक्वता के कारण वह परीषहों के उपस्थित होने पर विपरीत मार्ग पर