Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में चारित्र की श्रेष्ठता का दिग्दर्शन कराया गया है। यह बताया गया है कि रत्नत्रय से सम्पन्न व्यक्ति पापकर्म से छुटकारा पा सकता है। सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्वित साधना से ही आत्मा मोक्ष को पा सकता है। संयमसम्यक् चारित्र के साथ सम्यग् दर्शन और ज्ञान होता ही है। क्योंकि सम्यग् दर्शन एवं ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यग् हो ही नहीं सकता। अतः सम्यक् चारित्र के साथ ज्ञान और दर्शन अवश्य होते हैं, क्योंकि चारित्र पापकर्म का निरोधक है और पाप कर्म अर्थात् हिंसा आदि आश्रवों-दोषों का। इनके सेवन से पापकर्म का बन्ध होता है। बोध ज्ञान से ही होता है, इसलिए साधक ज्ञान की आंख से हेय व उपादेय मार्ग को देखता है, पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को समझता है और दर्शन से उस यथार्थ मार्ग पर श्रद्धा-विश्वास करता है तथा चारित्र के द्वारा हेय मार्ग का त्याग करके उपादेय मार्ग स्वीकार करता है। इस तरह रत्नत्रय की आराधना से वह पूर्व में बंधे हुए कर्मों का क्षय करता है, अभिनव पापकर्म के बन्ध को रोकता है। इस तरह वह संयम-साधना से निष्कर्म बनने का प्रयत्न करता है।
रत्नत्रय की आराधना त्याग-वैराग्य से युक्त आत्माएं ही कर सकती हैं। विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति उसका पालन नहीं कर सकते। साधु का वेश ग्रहण करके भी जो मठ-मन्दिर या चल-अचल संपत्ति पर अपना आधिपत्य जमाए बैठे हैं एवं अनेक प्रकार के आरम्भ-समारंभ में संलग्न हैं, वे रत्नत्रय की साधना से कोसों दूर हैं। इसके लिए धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, परिवार एवं घर आदि सभी पदार्थों से आसक्ति हटानी होती है। अतः सभी स्नेहबन्धनों एवं ममत्वभाव का त्यागी व्यक्ति ही संयम की साधना कर सकता है और वही कर्मबन्धन को तोड़ सकता है। दुर्बल एवं कायर पुरुष इस पथ पर नहीं चल सकता।
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥