Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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पंचम अध्ययन, उद्देशक 5
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होइ-होता है। उवेहाए-असम्यग् विचार करने से 6। अवेहमाणो-आगमानुसार विचार करता हुआ। अणुवेहमाणे-विचार करते हुए के प्रति। बूया-कहे। समियाएहे पुरुष! सम्यग् विचार से। उवेहाहि-पर्यालोचन कर! (तात्पर्य कि सम्यग् प्रकार से-मध्यस्थ भाव से विचार करने पर ही पदार्थों का यथार्थ स्वरूप अवगत हो सकता है, अन्यथा नहीं) इच्चेवं-इस प्रकार। तत्थ-उस संयम में यत्नशील होने पर। संधी-कर्म सन्तति रूप सन्धि। झोसियो-क्षपित। भवइ-होती है। वे-वह, सम्यक् प्रकार से। उट्ठियस्स-संयम मार्ग में उत्थित हुए की। ठियस्सगुरुजनों की आज्ञा में स्थित की। गइं-गति को। समणुपासह-सम्यक् प्रकार से देखो! इत्थवि-यहां पर भी। बालभावे-बालभाव-असंयम भाव। अप्पाणं-अपनी आत्मा को। नोउवदंसिज्जा-नहीं दिखलावे, अर्थात् संयम मार्ग में बालभाव का प्रदर्शन न करे।
· मूलार्थ-श्रद्धालु या वैराग्य युक्त मुनि तथा दीक्षा लेते हुए व्यक्ति, जो कि श्री 1-जिनेन्द्र भगवान के वचनों को सम्यग् मान रहा है-के भाव उत्तर काल में भी सम्यग् होते हैं, 2-सम्यग् मानते हुए के एकदा-किसी समय असम्यग् होते हैं, 3-असम्यम् मानते हुए के किसी समय सम्यग होते हैं, 4-असम्यग् मानते हुए के भाव एकदा असम्यग् होते हैं, 5-सम्यग् मानते हुए के सम्यग् वा असम्यग् तथा सम्यग् विचारणा से सम्यग् भाव होते हैं, 6-और असम्यग् मानते हुए के सम्यग् वा असम्यग् तथा असम्यग् विचारणा से असम्यग् होते हैं। आगमानुसार विचार करता हुआ विचार करो! इस प्रकार संयम में अवस्थित होने से कर्मों की सन्तति का क्षय होता है, वह जो संयम मार्ग में यत्नशील और गुरुजनों की आज्ञा में स्थित है, तुम उसकी गति को देखो! साधक पुरुष यहां अपने आत्मा का बालभाव प्रदर्शित न करे। हिन्दी-विवेचन
जब आत्मा अनन्तानुबंधी कषाय और दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियोंमिथ्यात्वमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय का क्षय या क्षयोपशम करता है, तब साधक के जीवन में श्रद्धा की, सम्यक्त्व की ज्योति जगती है। उसे यथार्थ तत्त्वों पर विश्वास होता है। अतः जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय एवं दर्शनमोह का उदय रहता है, तब तक सम्यक् श्रद्धा आवृत रहती है। जैसे आंखों पर मोतियाबिन्दु