Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
-काय
परीषह हैं, तथा । विरूवरूवे - नाना प्रकार के परीषहों के । फासे - स्पर्शो को । अचेल - वस्त्र से रहित या अल्प वस्त्र वाला भिक्षु । अहियासेइ - सहन करे । लाघवं - लघु भाव को । आगममाणे - जानता हुआ । से- वह भिक्षु । तवेक्लेशादि तप से। अभिसमन्नागए - युक्त । भवइ - होता है, अर्थात् सुधर्मा-स्वामी कहते हैं कि वह काय क्लेशादि तप को सहन करने वाला होता है। जहेयं - जिस प्रकार से यह विषय कहा गया है, वह । भगवया - भगवान ने । पवेइयं - प्रतिपादन किया है । तमेव - उपकरण और आहार की लाघवता को । अभिसमिच्चा- विचार कर । एव- अवधारणा अर्थ में है । सव्वओ - सर्व प्रकार से । संव्वताए - सर्वात्मा से। संमत्तमेव- सम्यक् प्रकार से । समभिजाणिज्जा - जाने । एवं - इस प्रकार । सिं- - उन । महावीराणं - महावीरों का यह आचार है । चिररायं - चिर काल पर्यन्त । पुव्वाइं - पूर्वोक्त । वासाणि - और वर्षों तक । रीयमाणाणं - संयम में विचरते हुओं का यह आचार है। पास - हे शिष्य ! तू देख । दवियाणं - मोक्ष मार्ग पर चलने वाले । अहियासियं - व्यक्तियों के लिए ये परीषह सहन करने योग्य हैं ।
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मूलार्थ - इन पूर्वोक्त धर्मोपकरणों के अतिरिक्त उपकरणों को कर्मबन्ध का कारण जानकर जिसने उनका परित्याग कर दिया है, वह मुनि सुन्दर धर्म को पालन करने वाला है। वह आचारसंपन्न अचेलक साधु सदा-सर्वदा संयम में स्थित रहता . है । उस भिक्षु को यह विचार नहीं होता कि मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है। अतः मैं नए वस्त्र की याचना करूंगा, या सूई-धागे की याचना करूंगा और फटे हुए वस्त्र को सीऊंगा या छोटे से बड़ा या बड़े से छोटा करूंगा, फिर उससे शरीर को आवृत करूंगा अथवा उस अचेलकत्व में पराक्रम करते हुए मुनि को तृणों के स्पर्श चुभते उष्णता के स्पर्श स्पर्शित करते हैं और दंशमशक के स्पर्श स्पर्शित करते हैं, तो वह एक या अनेक तरह के परीषहजन्य स्पर्शो को सहन करता है । अचेलक भिक्षु लाघवता को जानता हुआ कायक्लेश तप से युक्त होता है। यह पूर्वोक्त विषय भगवान महावीर ने प्रतिपादित किया है । हे शिष्य ! तू उस विषय को सम्यग् रूप से जानकर उन वीर पुरुषों की तरह - ह - जिन्होंने पूर्वी या वर्षों तक संयम-मार्ग में विचरकर परीषहों को सहन किया है, तू भी अपनी आत्मा में परीषहों को सहन करने की वैसी ही शक्ति प्राप्त कर ! इसका निष्कर्ष यह है कि मुनि के हृदय में परीषहों को सहन करने की तीव्र भावना होनी चाहिए।