Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 1
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अदिन्नमाययंति-वे अदत्तादान ग्रहण करते हैं, इस प्रकार पहले तीसरे महाव्रत के संबंध में कहकर अब सूत्रकार दूसरे व्रत के विषय में भी कुछ बातें कहते हैं। अदुवा-अथवा । वायाउ विउज्जंति-वे विविध प्रकार के वचन बोलते हैं। तंजहा-जैसे कि। अत्थि लोए-एक कहता है कि लोक है, तो दूसरा कहता है कि। नत्यि लोए-लोक नहीं है, एक कहता हैं कि। धुवेलोए-लोक ध्रुव है, तो दूसरा कहता है कि। अधुवे लोए-लोक अध्रुव है। साइए लोए-एक कहता है कि लोक सादि है, तो दूसरा कहता कि। अणाइए लोए-लोक अनादि है, एक कहता है कि। सपज्जवसिए लोए-लोक सपर्यवसित अर्थात् सान्त है, तो दूसरा कहता है कि। अपज्जवसिए लोए-लोक अनन्त है। सुकडेति वा-एक कहता है कि इसने दीक्षा ले कर अच्छा किया, तो दूसरा कहता है कि। दुक्कडति वा-इसने बुरा कार्य किया, अर्थात् इसने जो दीक्षा ग्रहण की है यह बुरा कार्य है। कल्लाणेत्ति वा-एक कहता है कि यह कल्याणकारी काम है, तो दूसरा कहता है कि । पावेत्ति वा-यह दीक्षा लेना पाप कार्य' है। साहुत्ति वा-एक कहता है यह साधु है, तो दूसरा कहता है कि। असाहुत्ति वा-यह असाधु है। सिद्धित्ति वा-एक कहता है सिद्धि है, तो दूसरा कहता है कि। असिद्धित्ति वा-सिद्धि नहीं है, एक कहता है कि यह। निरएत्ति वा-नरक है, तो दूसरा कहता है कि यह । अनिरएत्ति वा-नरक नहीं है। इस प्रकार अन्य मत वाले भिक्षु विभिन्न विचार प्रकट करते हुए अपने-अपने आग्रह में फंसे हुए हैं, अब सूत्रकार यह बताते हैं कि। जमिणं-जो यह। विप्पडिवन्ना-नाना प्रकार के आग्रहो से युक्त। मामगं धम्म- स्वकीय-अपने-अपने धर्म का। पन्नवेमाणा-प्ररूपण करते हुए और स्वधर्म से ही मोक्ष मानते हुए अन्य भव्य जीवों को मिथ्यामार्ग में आरूढ़ करने का यत्न करते हैं, अतः सूत्रकार कहते हैं कि हे शिष्यो! जाणह-तुम इसे जानो। इत्थवि-यहां पर भी लोकादि विषयक। अकस्मात-बिना हेतु के एकान्त पक्ष का ग्रहण करने से। एवं-इस प्रकार । तेसिं-उन वादियों का कथन। नो सुयक्खाए धम्मे-युक्ति संगत धर्म नहीं है और। नो सुपन्नत्ते धम्मे-यह धर्म भली-भांति प्रतिपादन किया हुआ भी नहीं। भवइ-है। ___ मूलार्थ-इस संसार में कुछ व्यक्तियों को आचार-विषयक सम्यग् बोध नहीं होता है। अतः कुछ अज्ञात भिक्षु इस लोक में आरम्भार्थ प्रवृत्त हो जाते हैं। वे अन्य धर्मावलम्बियों के कथनानुसार स्वयं भी जीवों के वध की आज्ञा देते हैं, दूसरों से