Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 2
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.गृहस्थ के ये वचन सुनकर वह। भिक्खू-भिक्षु-साधु। तं-उस। गाहावइं-गृहपति के प्रति। समणसं-मन से। सवयसं-वचन से। पडियाइक्खे-ऐसा कहे कि। आउसंतो गाहावई-हे आयुष्मान गृहपते! ते-तेरे। वयणं-वचन का। नो आढामिमैं आदर नहीं कर सकता हूं। ते वयणं-और तेरे वचन को। नो परिजाणामि-मैं उचित नहीं समझता हूं। खलु-यह अपि अर्थ में है। जो तुम-जो तू। मम-मेरे। अट्ठाए-लिए। असणं वा 4-अन्नादि। वत्थं वा 4-वस्त्रादि। पाणाई वा 4प्राणी आदि का। समारम्भ-उपमर्दन करके। समुद्दिस्स-मेरे उद्देश्य से। कीयं-मोल लेकर। पामिच्चं-उधार लेकर। अच्छिज्जं-किसी से छीन कर। अणिसट्ठ-दूसरे की वस्तु को उसकी अनुमति के बिना लाकर या। अभिहडं-घर से। आहटु-लाकर मुझे। चेएसि-देता है या। आवसहं वा-उपाश्रय-मकान बनवा कर देता है या। समुस्सिणासि-जीर्णोद्धार करवा कर देता है, यह मुझे स्वीकार नहीं है, क्योंकि मैं। से.-उक्त क्रिया से। विरओ-निवृत्त हो चुका हूं। आउसो गाहावई-हे आयुष्मान गृहपते! एयस्स-आपके उक्त वचन को। अकरणयाए-मैं स्वीकार नहीं कर सकता हूं। ..
मूलार्थ-वह भिक्षु (मुनि) आहारादि या अन्य कार्य के लिए पराक्रम करे। आवश्यकता होने पर वह खड़ा होवे, बैठे और शयन करे। जब वह श्मशान में, शून्यागार में, पर्वत की गुफा में, वृक्ष के मूल में या ग्राम के बाहर अन्य किसी स्थान पर विचर रहा हो, उस समय उसके समीप जाकर यदि कोई गृहपति इस प्रकार कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण! मैं तुम्हारे लिए प्राणी, भूत, जीव, सत्त्व आदि का उपमर्दन एवं आरंभ-समारम्भ करके आहार-पानी, खदिम-मिठाई आदि, स्वादिम-लवंग आदि, वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि बनवा देता हूं या तुम्हारे उद्देश्य से मोल लेकर, उधार लेकर, किसी से छीनकर या अन्य व्यक्ति की वस्तु को उसकी बिना अनुमति के लाकर एवं अपने घर से लाकर तुम्हें देता हूं। मैं तुम्हारे लिए नया मकान-उपाश्रय बनवा देता हूं या पुराने मकान का नवीन संस्कार करवा देता हूं। हे आयुष्मन् श्रमण! तुम अन्नादि पदार्थ खाओ और उस मकान में रहो। ऐसे वचन सुनकर वह भिक्षु गृहपति से कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ! मैं तेरे इस वचन को आदर नहीं दे सकता और मैं तेरे इस वचन को उचित भी नहीं समझता हूं। क्योंकि