Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
करता है, तो उनके अभिमान को ठेस लगती है और वे आवेश में आकर अपने पूज्य गुरु के भी शत्रु बन जाते हैं। वे उसे मारने-पीटने एवं विभिन्न कष्ट देने लगते हैं। ऐसे समय में भी मुनि को अपने आचार पथ से नहीं गिरना चाहिए। मुनि को पदार्थों के लोभ में आकर अपनी मर्यादा को तोड़ना नहीं चाहिए और न कष्टों से घबराकर ही संयम से विमुख होना चाहिए। परन्तु हर परिस्थिति में संयम में संलग्न रहते हुए उन्हें आचार का यथार्थ स्वरूप समझाना चाहिए।
इस विषय में कुछ और बातें बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-ते समणुन्ने असमणुन्नस्स असणं वा जाव नो पाइज्जा, नो निमंतिज्जा, नो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्तिबेमि॥202॥
छाया-स समनोज्ञोऽसमनोज्ञायाशनं वा यावन्ना प्रदद्यात्, न निमंत्रयेत्, न कुर्याद्वैयावृत्यं परमाद्रियमाणः इति ब्रवीमि। ___पदार्थ-से-वह। समणुन्ने-समनोज्ञ मुनि। असमणुन्नस्स-अमनोज्ञ साधु को। असणं वा-आहार आदि पदार्थ। परं आढायमाणे-अति आदर पूर्वक। नो पाइज्जा-न देवे। नो निमंतिज्जा-न निमन्त्रित करे। नो कुज्जा वेयावडियं-न वैयावृत्य ही करे। तिबेमि-ऐसा मैं कहता हूं।
मूलार्थ-समनोज्ञ साधु अमनोज्ञ साधु को आदर-सम्मान पूर्वक आहार आदि नहीं दे और न उसकी वैयावृत्य ही करे। हिन्दी-विवेचन ___प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम उद्देशक के 194वें सूत्र में उल्लिखित विषय को दोहराया गया है। इसका विवेचन उक्त स्थान पर किया जा चुका है, अतः हम यहां पिष्ट-पेषण करना उचित नहीं समझते, पाठक वहीं देख लें।
समनोज्ञ साधु को समनोज्ञ साधु के साथ कैसा बर्ताव रखना चाहिए, इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणुन्ने समणुन्नस्स. असणं वा जाव कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्तिबेमि॥203॥ .