Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
ज्ञान से जानकर। तं वा दंड-उस दंड को। अन्नं वा-मृषावाद आदि दंड को। दंडभी-उपमर्दन रूप दंड से डरने वाला भिक्षु। दंडं-दंड का। नो समारंभिज्जासिसमारम्भ न करे और न करावें। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। __मूलार्थ-ऊंची-नीची और तिरछी दिशाओं तथा विदिशाओं में रहने वाले जीवों में उपमर्दन रूप दंड समारम्भ को ज्ञान से जानकर मर्यादा शील भिक्षु स्वयं दंड का समारम्भ न करे और न अन्य व्यक्ति से दंड समारम्भ करावे तथा दंड समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे। वह ऐसा माने कि जो लोग इन पृथ्वी आदि कायों में दण्ड समारंभ करते हैं, उनके कार्य से हम लज्जित होते हैं। अतः हिंसा अथवा मृषावाद आदि दंड से डरने वाला बुद्धिमान पुरुष हिंसा के स्वरूप को जानकर दण्ड का समारम्भ न करे। हिन्दी-विवेचन ____ पूर्व सूत्र में हम देख चुके हैं कि धर्म देश-काल से आबद्ध नहीं है, प्रत्युत्त पाप से निवृत्त होने में है। प्रस्तुत सूत्र में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि भिक्षु को पाप कर्म से निवृत्त होना चाहिए। क्योंकि, पाप कर्म के संयोग से चित्त * वृत्तियों में चंचलता आती है। अतः मन को शान्त करने के लिए साधक को हिंसा
आदि दोषों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। उसे छह काय पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति एवं त्रस काय के जीवों का न तो स्वयं आरम्भ-समारम्भ करना चाहिए, न अन्य व्यक्ति से करवाना चाहिए और न आरम्भ करने वाले व्यक्ति का समर्थन हो करना चाहिए। इसी तरह मृषावाद, स्तेय आदि सभी दोषों का त्रिकरण और त्रियोग से त्याग करना चाहिए। हिंसा आदि दोषों से निवृत्त होने रूप इस धर्म को स्वीकार करने वाला व्यक्ति ही आत्मा का विकास करके निर्वाण पद को पा सकता है।
'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥