Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध याम-व्रत और शेष 22 तीर्थंकरों के शासन में चार याम-व्रत का उल्लेख मिलता है। इनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है। क्योंकि, ये सब वर्णन अपेक्षा विशेष के किए गए हैं। तीन याम में अस्तेय और ब्रह्मचर्य को छोड़ दिया है। मृषावाद और स्तेय का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो व्यक्ति झूठ बोलता है, वह किसी अंश में चोरी भी करता है और जो चोरी करता है, वह झूठ भी बोलता है। इस तरह मृषावाद एवं स्तेय दोनों को एक में ही स्वीकार कर लिया गया है। इसी तरह परिग्रह का अर्थ तृष्णा, लालसा एवं पदार्थों की भोगेच्छा है और तृष्णा, आकांक्षा एवं भोगेच्छा का ही दूसरा नाम अब्रह्मचर्य है। अतः अब्रह्मचर्य का परिग्रह में समावेश कर लिया गया है। इससे व्रतों की संख्या तीन रह गई। चार व्रतों में ब्रह्मचर्य का अपरिग्रह में समावेश किया गया है और पांच व्रतों में सबको अलग-अलग खोलकर रख दिया है, जिससे कि साधारण व्यक्ति भी सरलता से समझ सकें। इस तरह त्रियाम, चतुर्याम और पंचयाम में केवल संख्या का भेद है सिद्धांत का नहीं। क्योंकि, सर्वज्ञ पुरुषों के सिद्धान्त में परस्पर विरोध नहीं होता है।
__इस तरह प्रस्तुत सूत्र में त्रियाम धर्म का उपदेश दिया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति किसी भी समय में धर्म के स्वरूप को समझकर अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। जागने वाले के लिए जीवन का प्रत्येक समय महत्त्वपूर्ण है। जब जागे तभी सवेरा-चाहे बाल्य काल हो या प्रौढकाल, उसके लिए जीवनविकास का महत्त्वपूर्ण प्रभात है। मुमुक्षु पुरुष को पापकर्म से सर्वथा निवृत्त होकर प्रति समय संयम में संलग्न रहना चाहिए।
इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
1. वैदिक ग्रन्थों में भी ‘याम' शब्द का उल्लेख मिलता है। वेदों में 'याम' शब्द गति, प्रगति,
मार्ग एवं रथ आदि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मनुस्मृति एवं महाभारत आदि में 'याम' शब्द का प्रयोग रात्रि और दिन के चतुर्थ भाग () के अर्थ में मिलता है। गति का सम्बन्ध काल से होने के कारण 'याम' काल वाची भी मान लिया गया है। कालवाची ‘याम' शब्द 'य' धातु से बना है और व्रत वाची 'याम' शब्द 'यम्' धातु से। त्रिपिटक में भी तीन यामों का उल्लेख मिलता है और स्थानांग सूत्र की तरह उसके प्रथम आदि तीन भाग किए हैं। पञ्चयाम का तो नहीं, परन्तु चतुर्याम का वर्णन त्रिपिटकों में भी मिलता है और उसे निग्रंथों का धर्म बताया गया है।