Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
शिष्यो ! तुम संसार के दुःखों से उत्पन्न हुए महाभय को देखो अथवा हे शिष्य ! तू संसार के महाभय को देख ।
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हिन्दी - विवेचन
संसार में अनन्त जीव हैं । इन्द्रिय आदि साधनों की समानता की अपेक्षा से उनके 5 भेद किए गए हैं जिन्हें जीवों की पांच जातियाँ कहते हैं - 1 - एकेन्द्रिय, 2-द्वीन्द्रिय 3-त्रीन्द्रिय, 4 - चतुरिन्द्रिय, और 5 - पन्चेन्द्रिय । एकेन्द्रिय में स्पर्श इन्द्रियवाले पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु एवं वनस्पति के सभी जीव समाविष्ट हो जाते हैं। द्वीन्द्रिय में स्पर्श और जिह्वा इन दो इन्द्रिय वाले लट आदि जीवों को लिया गया है। इसी तरह त्रीन्द्रिय में स्पर्श, जिह्वा, घ्राण वाले चींटी, जूं आदि जीवों को, चतुरिन्द्रिय में स्पर्श, जिह्वा, घ्राण और चक्षु इन्द्रिय वाले मच्छर-मक्खी - बिच्छू आदि जीवों को तथा पंचेन्द्रिय में स्पर्श, जिह्वा, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय वाले नारक, पशु-पक्षी, मनुष्य और देवयोनि के जीवों को गिना गया है । इस तरह ये समस्त संसारी जीव अपने कृत कर्म के 'अनुसार योनि को प्राप्त करते हैं ।
संसार में कुछ प्राणी अंधे भी होते हैं । अंधत्व द्रव्य और भाव से दो प्रकार का होता है । द्रव्य अंधत्व का अर्थ है - आंखों में देखने की शक्ति का न होना और भाव अंधत्व का तात्पर्य है - पदार्थों के यथार्थ बोध का न होना। द्रव्य अंधत्व आत्मा के लिए इतना अहितकर नहीं है, जितना भाव अंधत्व है । भाव अंधत्व, अर्थात् अज्ञान एवं मोह के वश जीव विषय-वासना में संलग्न रहता है और परिणामस्वरूप पापकर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता है, अनेक तरह की वेदनाओं का संवेदन करता है।
अतः मुमुक्षु पुरुष को संसार में सभी प्राणियों एवं उनके परिभ्रमण करने के कारणों का परिज्ञान होना चाहिए और साधक को उसका चिन्तन करके संसार में भटकाने वाले दुष्कर्मों से अलग रहना चाहिए। इसी तरह संसार का चिन्तन उसे दुष्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग की ओर कदम बढ़ाने का प्रेरणा देता है और इससे उसकी साधना में तेजस्विता आती है । अतः साधक को वीतराग प्रभु द्वारा प्ररूपित आगमों के द्वारा संसार के स्वरूप का सम्यक् बोध प्राप्त करके मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे वह निर्भय बनकर निष्कर्म स्थिति को पा सके ।