Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 1
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छाया-तच्छृणुत यथा तथा सन्ति प्राणाः-प्राणिनः अन्धाः तमसि व्याख्याताः तामेव सकृद्, असकृद्, अतिगत्य उच्चावचान् स्पर्शान् अतिसंवेदयति बुद्धैः एतत् प्रवेदितम् सन्ति प्राणाः-प्राणिनः वासकाः रसगाः, उदके-उदकचराः, आकाशगामिनः प्राणाः (प्राणिनः) प्राणिनः क्लेशयन्ति पश्य! लोके महद् भयम्। .. पदार्थ-तं-उस कर्म विपाक को। जहा-तहा-जैसे-तैसे-यथार्थ रूप से उसी प्रकार, मुझसे। सुणेह-हे शिष्यो! तुम श्रवण करो। पाणा-प्राणी, संसार में। संति-हैं जो। अंधा-द्रव्य चक्षु वा भावचक्षु-विवेक से रहित। तमसि-नरकादि प्रधान-अन्धकारमय स्थानों में रहने वाले। वियाहिया-कथन किए हैं। तमेव-उन योनियों में रोगादि स्थानों से उत्पन्न हुए दुःख। सइं-एक बार। असई-अनेक बार। अइअच्च-भोगकर फिर तिर्यग् आदि गतियों में। उच्चावयफासे-शीतादि स्पर्शों को। पडिसंवेएइ-प्रतिसंवेदन करता है। एयं-यह विषय। बुद्धेहि-तीर्थंकरों ने। पवेइयं-प्रतिपादन किया है, तथा। पाणा-द्वीन्द्रियादि प्राणी। वासगा-भाषालब्धि सम्पन्न। संति-हैं। रसगा-रस के जानने वाले संज्ञी जीव हैं, इन संसारी जीवों के कर्म विपाक का विचार कर आत्मविकास करना चाहिए, तथा। उदए-उदक ' रूप-एकेन्द्रिय अप्काय के जीव। उदएचरा-जल में रहने वाले त्रस जीव, तथा। आगास गामिणो-आकाश में गमन करने वाले पक्षी आदि जीव। पाणा-तथा प्राणी। पाणे-अन्य प्राणियों को। किलेसंति-पीड़ित करते हैं-अर्थात् निर्बल को बलवान मार देता है, अतः हे शिष्य! लोए-लोक में। महब्भयं-महाभय है, इसको तू। पास-देख! अर्थात् संसार में दुःखों का महाभय है, इसको तू देख! ___ मूलार्थ-हे शिष्यो! तुम कर्म विपाक के यथावस्थित स्वरूप को मुझ से सुनी! संसार में द्रव्यचक्षु रहित या भावचक्षु रहित जीव कहे गए हैं। वे उन रोगादि अवस्थाओं में दुःखों का अनुभव कर रहे हैं। नरकादि गतियों में एक बार या अनेक बार नाना प्रकार के दुःख रूप स्पर्शो का अनुभव करते हैं। यह अनन्तोरक्त विषय बुद्धों-तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है। द्वीन्द्रियादि जीव या रस के जानने वाले संज्ञी जीव तथा अप्काय-जलरूप जीव, जल में रहने वाले त्रस जीव और आकाश में उड़ने वाले पक्षी, ये संसार में जितने जीव है, उनमें बलवान निर्बलों को पीड़ित दुःखित करते हैं।